Thursday, September 19, 2019

सदुपयोग




एक गांव में धर्मदास नामक एक व्यक्ति रहता
था। बातें तो बड़ी ही अच्छी- अच्छी करता
था पर था एकदम कंजूस। कंजूस भी ऐसा
वैसा नहीं बिल्कुल मक्खीचूस। चाय की बात
तो छोड़ों वह किसी को पानी तक के लिए
नहीं पूछता था।

साधु-संतों और भिखारियों को देखकर तो
उसके प्राण ही सूख जाते थे कि कहीं कोई
कुछ मांग न बैठे।

एक दिन उसके दरवाजे पर एक महात्मा
आये और धर्मदास से सिर्फ एक रोटी मांगी।
पहले तो धर्मदास ने महात्मा को कुछ भी देने
से मना कर दिया , लेकिन तब वह वहीं खड़ा
रहा तो उसे आधी रोटी देने लगा।

आधी रोटी देखकर महात्मा ने कहा कि अब
तो मैं आधी रोटी नहीं पेट भरकर खाना खाऊंगा।

इस पर धर्मदास ने कहा कि अब वह कुछ
नहीं देगा। महात्मा रातभर चुपचाप भूखा-
प्यासा धर्मदास के दरवाजे पर खड़ा रहा।

सुबह जब धर्मदास ने महात्मा को अपने
दरवाजे पर खड़ा देखा तो सोचा कि अगर
मैंने इसे भरपेट खाना नहीं खिलाया और
यह भूख-प्यास से यहीं पर मर गया तो मेरी
बदनामी होगी। बिना कारण साधु की हत्या
का दोष लगेगा।

धर्मदास ने महात्मा से कहा कि बाबा तुम भी
क्या याद करोगे , आओ पेट भरकर खाना
खा लो।

महात्मा भी कोई ऐसा वैसा नहीं था।
धर्मदास की बात सुनकर महात्मा ने कहा
अब मुझे खाना नहीं खाना , मुझे तो एक
कुआं खुदवा दो।

‘लो अब कुआं बीच में कहां से आ गया’
धर्मदास ने साधु महाराज से कहा।

धर्मदास ने कुआं खुदवाने से साफ मना
कर दिया।

साधु महाराज अगले दिन फिर रात भर
चुपचाप भूखा- प्यासा धर्मदास के दरवाजे
पर खड़ा रहा।

अगले दिन सुबह भी जब धर्मदास ने साधु
महात्मा को भूखा-प्यासा अपने दरवाजे पर
ही खड़ा पाया तो सोचा कि अगर मैने कुआं
नहीं खुदवाया तो यह महात्मा इस बार जरूर
भूखा-प्यास मर जायेगा और मेरी बदनामी होगी।

धर्मदास ने काफी सोच- विचार किया और
महात्मा से कहा कि साधु बाबा मैं तुम्हारे
लिए एक कुआं खुदवा देता हूँ  और इससे
आगे अब कुछ मत बोलना।

‘नहीं , एक नहीं अब तो दो कुएं खुदवाने पड़ेंगे।
महात्मा की फरमाइशें बढ़ती ही जा रही थीं।

धर्मदास कंजूस जरूर था बेवकूफ नहीं।
उसने सोचा कि अगर मैंने दो कुएं खुदवाने
से मनाकर दिया तो यह चार कुएं खुदवाने
की बात करने लगेगा , इसलिए धर्मदास ने
चुपचाप दो कुएं खुदवाने में ही अपनी भलाई
समझी।

कुएं खुदकर तैयार हुए तो उनमें पानी भरने
लगा। जब कुओं में पानी भर गया तो महात्मा
ने धर्मदास से कहा , दो कुओं में से एक कुआं
मैं तुम्हें देता हूँ और एक अपने पास रख लेता 
 हूँ। मैं कुछ दिनों के लिए कहीं जा रहा हूँ , 
लेकिन ध्यान रहे मेरे कुएं में से तुम्हें एक बूंद
पानी भी नहीं निकालना है। साथ ही अपने
कुएं में से सब गांव वालों को रोज पानी
निकालने देना है। मैं वापस आकर अपने
कुएं से पानी पीकर प्यास बुझाऊंगा।

धर्मदास ने महात्मा वाले कुएं के मुंह पर एक
मजबूत ढक्कन लगवा दिया। सब गांव वाले
रोज धर्मदास वाले कुएं से पानी भरने लगे।
लोग खूब पानी निकालते पर कुएं में पानी
कम न होता। शुध्द-शीतल जल पाकर गांव
वाले निहाल हो गये थे और महात्मा जी का
गुणगान करते न थकते थे।

एक वर्ष के बाद महात्मा पुनः उस गांव में
आये और धर्मदास से बोले कि उसका कुआं
खोल दिया जाये। धर्मदास ने कुएं का ढक्कन
हटवा दिया। लोग लोग यह देखकर हैरान रह
गये कि कुएं में एक बूंद भी पानी नहीं था।

महात्मा ने कहा , ‘कुएं से कितना भी पानी
क्यों न निकाला जाए वह कभी खत्म नहीं
होता अपितु बढ़ता जाता है। कुएं का पानी
न निकालने पर कुआं सूख जाता है इसका
स्पष्ट प्रमाण तुम्हारे सामने है और यदि किसी
कारण से कुएं का पानी न निकालने पर पानी
नहीं भी सुखेगा तो वह सड़ अवश्य जायेगा
और किसी काम में नहीं आयेगा।

महात्मा ने आगे कहा , ‘कुएं के पानी की
तरह ही धन-दौलत की भी तीन गतियां
होती हैं। उपयोग , नाश अथवा दुरुपयोग।
धन-दौलत का जितना इस्तेमाल करोगे
वह उतना ही बढ़ती जायेगी। धन-दौलत
का इस्तेमाल न करने पर कुएं के पानी की
वह धन-दौलत निरर्थक पड़ी रहेगी। उसका
उपयोग संभव नहीं रहेगा या अन्य कोई
उसका दुरुपयोग कर सकता है। अतः अर्जित
धन-दौलत का समय रहते सदुपयोग करना
अनिवार्य है।’

ज्ञान की भी कमोबेश यही स्थिति होती है।
धन-दौलत से दूसरों की सहायता करने की
तरह ही ज्ञान भी बांटते चलो। हमारा समाज
जितना अधिक ज्ञानवान , जितना अधिक
शिक्षित व सुसंस्कृत होगा उतनी ही देश में
सुख- शांति और समृध्दि आयेगी। फिर ज्ञान
बांटने वाले अथवा शिक्षा का प्रचार-प्रसार
करने वाले का भी कुएं के जल की तरह ही
कुछ नहीं घटता अपितु बढ़ता ही है।

धर्मदास ने कहा , ‘हां, गुरुजी आप बिल्कुल
सही कह रहे हो। मुझे अपनी गलती का
अहसास हो गया है।

इस घटना से धर्मदास को सही ज्ञान और
सही दिशा मिल गयी थी।

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