Tuesday, December 31, 2019

इतने सारे सपने





फ़ुर्सत में था ,
सोचा चलो आज थोड़ी सी जिंदगी सुलझा लूँ ।
अलमारी खोली तो ढ़ेर सारे सपनें नीचे गिर गये ,
ना जाने कब से रखे थे वहाँ ,
बेतरतीब , मुड़े ,तुड़े , ठूसे हुए , थोड़ी सी जगह में , इतने सारे।
पर शुक्र था ,
खोया नहीं था एक भी ,



उठाया तो पाया , ज्यादातर तो टूट चुके थे ,
जो बचे थे ,वो शायद आज के समय के हिसाब से पुराने हो गये थे ।
आवाज आयी ,फेंक क्यों नहीं देते हो इन सब को ,
कुछ काम के तो हैं नहीं , बिना बात जगह घेर रखी हैं ।
कितना वक्त लगाया था मैंने इन सब को बुनने में ,
पल - पल , क्षण -क्षण , कितने लोग , कितनी ख़्वाहिशें ,
कितनी मजबूरियां , कितनी रातेँ , कितने दिन ,
तब जाकर इकट्ठे कर पाया था , इतने सारे सपने ।
गर बेचने भी निकलूँ तो शायद कोई ख़रीदार न मिले ,
गर मिल भी गया तो शायद इनका मूल्य ना चुका पाये ।
जिनके साथ मिलकर बुने थे , उन्हें भी लौटा नहीं सकता ,
और सपनों को तोड़ देना मेरी फितरत में नहीं ।
फिर से बटोर कर , सहेजकर मैं वापिस उन्हें अलमारी में रख देता हूं ,
जिंदगी पहले से कुछ कम उलझी हुई प्रतीत होती है ।



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