एक बेटी जो अब माँ बन गयी अपने संस्मरण ब्यक्त करते हुवे बता रही है -
बचपन में 'रामायण' से बहुत सारी अच्छी बातों के साथ एक बुरी बात भी सीख ली थी ... "श्राप" देना...
भाई-बहनों, दोस्तों को जब-तब "श्राप" दे ही देते थे.
हम खुद को किसी ऋषि-मुनि से कम थोड़े ना समझते थे.
सबसे ज्यादा दिया जाने वाला श्राप था 'जा, तू इस साल फेल हो जाये'
या 'जा, आज तेरी पिटाई हो'
'जा, तुझे अगले पूरे महीने जेब-खर्च ना मिले'
और भी ना जाने कितने श्राप...
और ये श्राप बाकायदा ऋषियों वाली मुद्रा में हाथ उठा कर और एकदम धरती हिलने, आसमान गरजने वाली फीलिंग के साथ दिए जाते थे
सब कुछ ठीक ही चल रहा था जब तक कि माँ इस खेल में शामिल नहीं हुई...
माँ तो हर बात पर "श्राप" देती थी.
उनकी बात न सुनो तो...'देखना एक दिन तरसोगे माँ के लिए.'
खाना न खाओ तो...'देखना एक दिन कोई पूछेगा भी नहीं खाने के लिए.'
सुबह जल्दी न उठो तो...'देखना जब जिम्मेदारी आएगी सब नींद उड़ जाएगी.'
कोई काम न करो तो...'देखना एक दिन चक्करघिन्नी की तरह घूमेगी.'
उनसे कोई काम कह दो तो... ' माँ हमेशा साथ नहीं रहेगी...'
माँ के श्राप तो ऋषि-मुनियों से भी ज्यादा ख़तरनाक निकले। एक भी "श्राप" खाली नहीं गया... सारे फलीभूत हुए।
सच मैं तरस जाती हूँ माँ के प्यार के लिए, साल में एक बार ही तो मिल पाती हूँ आपसे.
सच में कोई नहीं पूछता खाने के लिए क्योंकि अब तो मैं ही हूँ सबको बना कर खिलाने वाली.
सच में नींद उड़ गई है दिन भर जिम्मेदारियां ही घूमती हैं दिल और दिमाग़ में.
सच में चकरघिन्नी बन गई है आपकी बेटी... घर, बाहर बच्चे सब कुछ संभालते हुए
सच में अब माँ हमेशा साथ नहीं है हमारे दुख में, तकलीफ़ में.
माँ... आप क्यूँ शामिल हुई हम बच्चों के खेल में...
उस वक़्त नहीं समझ आती थी माँ की अहमियत ।
वैसे भी माँ को हमेशा 'फ़ॉर ग्रांटेड' लेते हैं हम लोग। हमें लगता है हमारी माँ तो हमेशा ही रहेगी, वो कहाँ जाएगी ।
लेकिन मैंने कहीं पढ़ा था कि ' लड़कों के लिए तो बहन, बेटी भी माँ का रूप ले लेती हैं और एक वक्त पर पत्नी भी माँ की तरह ख़याल रखती है लेकिन लड़कियों की ज़िंदगी मे दुबारा माँ नहीं आती.'
ये कड़वा है - पर सच है।