Monday, September 30, 2019

लव मैरिज

ट्रैन के ए.सी. कम्पार्टमेंट में मेरे सामने की सीट पर बैठी लड़की ने मुझसे पूछा " हैलो, क्या आपके पास इस मोबाइल की पिन है??"
उसने अपने बैग से एक फोन निकाला था, और नया सिम कार्ड उसमें डालना चाहती थी। लेकिन सिम स्लॉट खोलने के लिए पिन की जरूरत पड़ती है जो उसके पास नहीं थी। मैंने हाँ में गर्दन हिलाई और सीट के नीचे से अपना बैग निकालकर उसके टूल बॉक्स से पिन ढूंढकर लड़की को दे दी। लड़की ने थैंक्स कहते हुए पिन ले ली और सिम डालकर पिन मुझे वापिस कर दी।
थोड़ी देर बाद वो फिर से इधर उधर ताकने लगी, मुझसे रहा नहीं गया.. मैंने पूछ लिया "कोई परेशानी??"
वो बोली सिम स्टार्ट नहीं हो रही है, मैंने मोबाइल मांगा, उसने दिया। मैंने उसे कहा कि सिम अभी एक्टिवेट नहीं हुई है, थोड़ी देर में हो जाएगी। और एक्टिव होने के बाद आईडी वेरिफिकेशन होगा उसके बाद आप इसे इस्तेमाल कर सकेंगी।
लड़की ने पूछा, आईडी वेरिफिकेशन क्यों??
मैंने कहा " आजकल सिम वेरिफिकेशन के बाद एक्टिव होती है, जिस नाम से ये सिम उठाई गई है उसका ब्यौरा पूछा जाएगा बता देना"
लड़की बुदबुदाई "ओह्ह "
मैंने दिलासा देते हुए कहा "इसमे कोई परेशानी की कोई बात नहीं"
वो अपने एक हाथ से दूसरा हाथ दबाती रही, मानो किसी परेशानी में हो। मैंने फिर विन्रमता से कहा "आपको कहीं कॉल करना हो तो मेरा मोबाइल इस्तेमाल कर लीजिए"
लड़की ने कहा "जी फिलहाल नहीं, थैंक्स, लेकिन ये सिम किस नाम से खरीदी गई है मुझे नहीं पता"
मैंने कहा "एक बार एक्टिव होने दीजिए, जिसने आपको सिम दी है उसी के नाम की होगी"
उसने कहा "ओके, कोशिस करते हैं"
मैंने पूछा "आपका स्टेशन कहाँ है??"
लड़की ने कहा "दिल्ली"
और आप?? लड़की ने मुझसे पूछा
मैंने कहा "दिल्ली ही जा रहा हूँ, एक दिन का काम है, आप दिल्ली में रहती हैं या...?"
लड़की बोली "नहीं नहीं, दिल्ली में कोई काम नहीं ना मेरा घर है वहाँ"
तो? मैंने उत्सुकता वश पूछा
वो बोली "दरअसल ये दूसरी ट्रेन है, जिसमे आज मैं हूँ, और दिल्ली से तीसरी गाड़ी पकड़नी है, फिर हमेशा के लिए आज़ाद"
आज़ाद?? लेकिन किस तरह की कैद से?? मुझे फिर जिज्ञासा हुई किस कैद में थी ये कमसिन अल्हड़ सी लड़की..
लड़की बोली, उसी कैद में थी जिसमें हर लड़की होती है। जहाँ घरवाले कहे शादी कर लो, जब जैसा कहे वैसा करो। मैं घर से भाग चुकी हुँ..
मुझे ताज्जुब हुआ मगर अपने ताज्जुब को छुपाते हुए मैंने हंसते हुए पूछा "अकेली भाग रही हैं आप? आपके साथ कोई नजर नहीं आ रहा? "
वो बोली "अकेली नहीं, साथ में है कोई"
कौन? मेरे प्रश्न खत्म नहीं हो रहे थे
दिल्ली से एक और ट्रेन पकड़ूँगी, फिर अगले स्टेशन पर वो मिलेगा, और उसके बाद हम किसी को नहीं मिलेंगे..
ओह्ह, तो ये प्यार का मामला है।
उसने कहा "जी"
मैंने उसे बताया कि 'मैंने भी लव मैरिज की है।'
ये बात सुनकर वो खुश हुई, बोली "वाओ, कैसे कब?" लव मैरिज की बात सुनकर वो मुझसे बात करने में रुचि लेने लगी
मैंने कहा "कब कैसे कहाँ? वो मैं बाद में बताऊंगा पहले आप बताओ आपके घर में कौन कौन है?
उसने होशियारी बरतते हुए कहा " वो मैं आपको क्यों बताऊं? मेरे घर में कोई भी हो सकता है, मेरे पापा माँ भाई बहन, या हो सकता है भाई ना हो सिर्फ बहने हो, या ये भी हो सकता है कि बहने ना हो और 2-4 मुस्टंडे भाई हो"
मतलब मैं आपका नाम भी नहीं पूछ सकता "मैंने काउंटर मारा"
वो बोली, 'कुछ भी नाम हो सकता है मेरा, टीना, मीना, शबीना, अंजली कुछ भी'
बहुत बातूनी लड़की थी वो.. थोड़ी इधर उधर की बातें करने के बाद उसने मुझे ट्रॉफी दी जैसे छोटे बच्चे देते हैं क्लास में, बोली आज मेरा बर्थडे है।
मैंने उसकी हथेली से ट्रॉफी उठाते बधाई दी और पूछा "कितने साल की हुई हो?"
वो बोली "18"
"मतलब भागकर शादी करने की कानूनी उम्र हो गई आपकी" मैंने काउंटर किया
वो "हंसी"
कुछ ही देर में काफी फ्रैंक हो चुके थे हम दोनों। जैसे बहुत पहले से जानते हो एक दूसरे को..
मैंने उसे बताया कि "मेरी उम्र 28 साल है, यानि 10 साल बड़ा हुँ"
उसने चुटकी लेते हुए कहा "लग भी रहे हो"
मैं मुस्कुरा दिया
मैंने उसे पूछा "तुम घर से भागकर आई हो, तुम्हारे चेहरे पर चिंता के निशान जरा भी नहीं है, इतनी बेफिक्री मैंने पहली बार देखी"
खुद की तारीफ सूनकर वो खुश हुई, बोली "मुझे उसने(प्रेमी ने) पहले से ही समझा दिया था कि जब घर से निकलो तो बिल्कुल बिंदास रहना, घरवालों के बारे में बिल्कुल मत सोचना, बिल्कुल अपना मूड खराब मत करना, सिर्फ मेरे और हम दोनों के बारे में सोचना और मैं वही कर रही हूँ"
मैंने फिर चुटकी ली, कहा "उसने तुम्हे मुझ जैसे अनजान मुसाफिरों से दूर रहने की सलाह नहीं दी?"
उसने हंसकर जवाब दिया "नहीं, शायद वो भूल गया होगा ये बताना"
मैंने उसके प्रेमी की तारीफ करते हुए कहा " वैसे तुम्हारा बॉय फ्रेंड काफी टेलेंटेड है, उसने किस तरह से तुम्हे अकेले घर से रवाना किया, नई सिम और मोबाइल दिया, तीन ट्रेन बदलवाई.. ताकि कोई ट्रेक ना कर सके, वेरी टेलेंटेड पर्सन"
लड़की ने हामी भरी,बोली " बोली बहुत टेलेंटेड है वो, उसके जैसा कोई नहीं"
मैंने उसे बताया कि "मेरी शादी को 5 साल हुए हैं, एक बेटी है 2 साल की, ये देखो उसकी तस्वीर"
मेरे फोन पर बच्ची की तस्वीर देखकर उसके मुंह से निकल गया "सो क्यूट"
मैंने उसे बताया कि "ये जब पैदा हुई, तब मैं कुवैत में था, एक पेट्रो कम्पनी में बहुत अच्छी जॉब थी मेरी, बहुत अच्छी सेलेरी थी.. फिर कुछ महीनों बाद मैंने वो जॉब छोड़ दी, और अपने ही कस्बे में काम करने लगा।"
लड़की ने पूछा जॉब क्यों छोड़ी??
मैंने कहा "बच्ची को पहली बार गोद में उठाया तो ऐसा लगा जैसे जन्नत मेरे हाथों में है, 30 दिन की छुट्टी पर घर आया था, वापस जाना था लेकिन जा ना सका। इधर बच्ची का बचपन खर्च होता रहे उधर मैं पूरी दुनिया कमा लूं, तब भी घाटे का सौदा है। मेरी दो टके की नौकरी, बचपन उसका लाखों का.."
उसने पूछा "क्या बीवी बच्चों को साथ नहीं ले जा सकते थे वहाँ?"
मैंने कहा "काफी टेक्निकल मामलों से गुजरकर एक लंबी अवधि के बाद रख सकते हैं, उस वक्त ये मुमकिन नहीं था.. मुझे दोनों में से एक को चुनना था, आलीशान रहन सहन के साथ नौकरी या परिवार.. मैंने परिवार चुना अपनी बेटी को बड़ा होते देखने के लिए। मैं कुवैत वापस गया था, लेकिन अपना इस्तीफा देकर लौट आया।"
लड़की ने कहा "वेरी इम्प्रेसिव"
मैं मुस्कुराकर खिड़की की तरफ देखने लगा
लड़की ने पूछा "अच्छा आपने तो लव मैरिज की थी न,फिर आप भागकर कहाँ गए?? कैसे रहे और कैसे गुजरा वो वक्त??
उसके हर सवाल और हर बात में मुझे महसूस हो रहा था कि ये लड़की लकड़पन के शिखर पर है, बिल्कुल नासमझ और मासूम।
मैंने उसे बताया कि हमने भागकर शादी नहीं की, और ये भी है कि उसके पापा ने मुझे पहली नजर में सख्ती से रिजेक्ट कर दिया था।"
उन्होंने आपको रिजेक्ट क्यों किया?? लड़की ने पूछा
मैंने कहा "रिजेक्ट करने की कुछ भी वजूहात हो सकती है, मेरी जाति, मेरा धर्म, मेरा कुल कबीला घर परिवार नस्ल या नक्षत्र..इन्ही में से कोई काट होती है जिसके इस्तेमाल से जुड़ते हुए रिश्तों की डोर को काटा जा सकता है"
"बिल्कुल सही", लड़की ने सहमति दर्ज कराई और आगे पूछा "फिर आपने क्या किया?"
मैंने कहा "मैंने कुछ नहीं किया,उसके पिता ने रिजेक्ट कर दिया वहीं से मैंने अपने बारे में अलग से सोचना शुरू कर दिया था। खुशबू ने मुझे कहा कि भाग चलते हैं, मेरी वाइफ का नाम खुशबू है..मैंने दो टूक मना कर दिया। वो दो दिन तक लगातार जोर देती रही, कि भाग चलते हैं। मैं मना करता रहा.. मैंने उसे समझाया कि "भागने वाले जोड़े में लड़के की इज़्ज़त वकार पर कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता, जबकि लड़की का पूरा कुल धुल जाता है। फिल्मों में नायक ही होता है जो अपनी प्रेमिका को भगा ले जाए और वास्तविक जीवन में भी प्रेमिका को भगाकर शादी करने वाला नायक ही माना जाता है। लड़की भगाने वाले लड़के के दोस्तों में उस लड़के का दर्जा बुलन्द हो जाता है, भगाने वाला लड़का हीरो माना जाता है लेकिन इसके विपरीत जो लड़की प्रेमी संग भाग रही है वो कुल्टा कहलाती है, मुहल्ले के लड़के उसे चालू ठीकरा कहते हैं। बुराइयों के तमाम शब्दकोष लड़की के लिए इस्तेमाल किये जाते हैं। भागने वाली लड़की आगे चलकर 60 साल की वृद्धा भी हो जाएगी तब भी जवानी में किये उस कांड का कलंक उसके माथे पर से नहीं मिटता। मैं मानता हूँ कि लड़का लड़की को तौलने का ये दोहरा मापदंड गलत है, लेकिन है तो सही.. ये नजरिया गलत है मगर अस्तित्व में है, लोगों के अवचेतन में भागने वाली लड़की की भद्दी तस्वीर होती है। मैं तुम्हारी पीठ को छलनी करके सुखी नहीं रह सकता, तुम्हारे माँ बाप को दुखी करके अपनी ख्वाहिशें पूरी नहीं कर सकता।"
वो अपने नीचे का होंठ दांतो तले पीसने लगी, उसने पानी की बोतल का ढक्कन खोलकर एक घूंट अंदर सरकाया।
मैंने कहा अगर मैं उस दिन उसे भगा ले जाता तो उसकी माँ तो शायद कई दिनों तक पानी भी ना पीती। इसलिए मेरी हिम्मत ना हुई कि ऐसा काम करूँ.. मैं जिससे प्रेम करूँ उसके माँ बाप मेरे माँ बाप के समान ही है। चाहे शादी ना हो, तो ना हो।
कुछ पल के लिए वो सोच में पड़ गई , लेकिन मेरे बारे में और अधिक जानना चाहती थी, उसने पूछा "फिर आपकी शादी कैसे हुई???
मैंने बताया कि " खुशबू की सगाई कहीं और कर दी गई थी। धीरे धीरे सबकुछ नॉर्मल होने लगा था। खुशबू और उसके मंगेतर की बातें भी होने लगी थी फोन पर, लेकिन जैसे जैसे शादी नजदीक आने लगी, उन लोगों की डिमांड बढ़ने लगी"
डिमांड मतलब 'लड़की ने पूछा'
डिमांड का एक ही मतलब होता है, दहेज की डिमांड। परिवार में सबको सोने से बने तोहफे दो, दूल्हे को लग्जरी कार चाहिए, सास और ननद को नेकलेस दो वगैरह वगैरह, बोले हमारे यहाँ रीत है। लड़का भी इस रीत की अदायगी का पक्षधर था। वो सगाई मैंने येन केन प्रकरेण तुड़वा डाली.. फिर किसी तरह घरवालों को समझा बुझा कर मैं फ्रंट पर आ गया और हमारी शादी हो गई। ये सब किस्मत की बात थी..
लड़की बोली "चलो अच्छा हुआ आप मिल गए, वरना वो गलत लोगों में फंस जाती"
मैंने कहा "जरूरी नहीं कि माँ पापा का फैसला हमेशा सही हो, और ये भी जरूरी नहीं कि प्रेमी जोड़े की पसन्द सही हो.. दोनों में से कोई भी गलत या सही हो सकता है.. नुक्ते की बात यहाँ ये है कि कौन ज्यादा फरमाबरदार और वफादार है।"
लड़की ने फिर से पानी का घूंट लिया और मैंने भी.. लड़की ने तर्क दिया कि "हमारा फैसला गलत हो जाए तो कोई बात नहीं, उन्हें ग्लानि नहीं होनी चाहिए"
मैंने कहा "फैसला ऐसा हो जो दोनों का हो, औलाद और माता पिता दोनों की सहमति, वो सबसे सही है। बुरा मत मानना मैं कहना चाहूंगा कि तुम्हारा फैसला तुम दोनों का है, जिसमे तुम्हारे पेरेंट्स शामिल नहीं है, ना ही तुम्हे इश्क का असली मतलब पता है अभी"
उसने पूछा "क्या है इश्क़ का सही अर्थ?"
मैंने कहा "तुम इश्क में हो, तुम अपना सबकुछ छोड़कर चली आई ये इश्क़ है, तुमने अक़्ल का दखल नहीं दिया ये इश्क है, नफा नुकसान नहीं सोचा ये इश्क है...तुम्हारा दिमाग़ दुनियादारी के फितूर से बिल्कुल खाली था, उस खाली स्पेस में इश्क इनस्टॉल कर दिया गया। जिसने इश्क को इनस्टॉल किया वो इश्क में नहीं है.. यानि तुम जिसके साथ जा रही हो वो इश्क में नहीं, बल्कि होशियारी हीरोगिरी में है। जो इश्क में होता है वो इतनी प्लानिंग नहीं कर पाता है, तीन ट्रेनें नहीं बदलवा पाता है, उसका दिमाग इतना काम ही नहीं कर पाता.. कोई कहे मैं आशिक हुँ, और वो शातिर भी हो ये नामुमकिन है। मजनू इश्क में पागल हो गया था, लोग पत्थर मारते थे उसे, इश्क में उसकी पहचान तक मिट गई। उसे दुनिया मजून के नाम से जानती है जबकि उसका असली नाम कैस था जो नहीं इस्तेमाल किया जाता। वो शातिर होता तो कैस से मजनू ना बन पाता। फरहाद ने शीरीं के लिए पहाड़ों को खोदकर नहर निकाल डाली थी और उसी नहर में उसका लहू बहा था, वो इश्क़ था। इश्क़ में कोई फकीर हो गया, कोई जोगी हो गया, किसी मांझी ने पहाड़ तोड़कर रास्ता निकाल लिया..किसी ने अतिरिक्त दिमाग़ नहीं लगाया.. लालच हिर्स और हासिल करने का नाम इश्क़ नहीं है.. इश्क समर्पण करने को कहते हैं जिसमें इंसान सबसे पहले खुद का समर्पण करता है, जैसे तुमने किया, लेकिन तुम्हारा समर्पण हासिल करने के लिए था, यानि तुम्हारे इश्क में हिर्स की मिलावट हो गई । डॉ इकबाल का शेर है
"अक़्ल अय्यार है सौ भेष बदल लेती है
इश्क बेचारा ना मुल्ला है, ना ज़ाहिद, ना हकीम"
लकड़ी अचानक से खो सी गई.. उसकी खिलख़िलाहट और लपड़ापन एकदम से खमोशी में बदल गया.. मुझे लगा मैं कुछ ज्यादा बोल गया, फिर भी मैंने जारी रखा, मैंने कहा " प्यार तुम्हारे पापा तुमसे करते हैं, कुछ दिनों बाद उनका वजन आधा हो जाएगा, तुम्हारी माँ कई दिनों तक खाना नहीं खाएगी ना पानी पियेगी.. जबकि आपको अपने प्रेमी को आजमा कर देख लेना था, ना तो उसकी सेहत पर फर्क पड़ता, ना दिमाग़ पर, वो अक्लमंद है, अपने लिए अच्छा सोच लेता। आजकल गली मोहल्ले के हर तीसरे लौंडे लपाडे को जो इश्क हो जाता है, वो इश्क नहीं है, वो सिनेमा जैसा कुछ है। एक तरह की स्टंटबाजी, डेरिंग, अलग कुछ करने का फितूर..और कुछ नहीं।
लड़की का चेहरे का रंग बदल गया, ऐसा लग रहा था वो अब यहाँ नहीं है, उसका दिमाग़ किसी अतीत में टहलने निकल गया है। मैं अपने फोन को स्क्रॉल करने लगा.. लेकिन मन की इंद्री उसकी तरफ थी।
थोड़ी ही देर में उसका और मेरा स्टेशन आ गया.. बात कहाँ से निकली थी और कहाँ पहुँच गई.. उसके मोबाइल पर मैसेज टोन बजी, देखा, सिम एक्टिवेट हो चुकी थी.. उसने चुपचाप बैग में से आगे का टिकट निकाला और फाड़ दिया.. मुझे कहा एक कॉल करना है, मैंने मोबाइल दिया.. उसने नम्बर डायल करके कहा "सोरी पापा, और सिसक सिसक कर रोने लगी, सामने से पापा फोन पर बेटी को संभालने की कोशिश करने लगे.. उसने कहा पापा आप बिल्कुल चिंता मत कीजिए मैं घर आ रही हूँ..दोनों तरफ से भावनाओ का सागर उमड़ पड़ा"
हम ट्रेन से उतरे, उसने फिर से पिन मांगी, मैंने पिन दी.. उसने मोबाइल से सिम निकालकर तोड़ दी और पिन मुझे वापस कर दी

अमेरिकन डायमंड

रात आधी से अधिक बीत चुकी थी, पर अलका की आंखों से जाने क्यों नींद गायब थी. तरह-तरह के विचारों ने उसके मन को कितना अशांत कर दिया था. वो सोते हुए रोहित के बालों में हौले-हौले बड़े प्यार-से यूं उंगलियां फिराने लगी, जैसे उसे अपना प्यार सदियों बाद मिला हो. आज उसे पुराने दिन याद आने लगे.
अलका और सौम्या अच्छी सहेलियां थीं. नितांत विपरीत स्वभाव के बावजूद उनकी मित्रता सबके लिए आश्चर्य का विषय था. उन्मुक्त विचारों और खुले मन की सौम्या को न तो पार्टियों में जाने में कोई ऐतराज़ होता, न डेटिंग में कोई संकोच. तभी तो बिंदास और महफ़िलों की शान सौम्या के कितने ही लड़के दीवाने थे. वहीं फैशन व पार्टियों से दूर, अंतर्मुखी साहित्यानुरागी अलका क्लास में न दिख रही हो, तो लाइब्रेरी में ही मिलती. लड़कों से तो वो दूर ही रहती. “तू कहां इक्कीसवीं सदी में पैदा हो गई. तुझे तो घोड़ी पर सवार हो कोई राजकुमार ब्याहकर ले जाएगा.” कहकर हंसती हुई सौम्या जब छेड़ने लगती, तो बेचारी अलका शरमा ही जाती.
“और तुम? तुम कैसे करोगी शादी? राजुकमार आएगा या तुम ही भगा ले जाओगी किसी राजकुमार को?” एक दिन वो पूछ ही बैठी सौम्या से.
“न बाबा. अब तो ज़माना नहीं रहा कि स्टैच्यू की तरह फोटो खिंचाई, लड़की दिखाई और विदा हो गए किसी अजनबी के साथ. न कोई उमंग-तरंग, न रोमांस, न रोमांच.”
सौम्या दो पल रुककर बोली, “मैं नहीं चाहती कि मम्मी-पापा के ढूंढ़े किसी भी लड़के से शादी कर लूं. मैं तो ऐसे लड़के से शादी करूंगी, जो मुझे जाने-समझे.”
सौम्या के पिता फौजी अफसर होते हुए भी पार्टियों के कम शौक़ीन थे, तो उसकी मां को अत्याधुनिक जीवनशैली पसंद थी. उसके पिता सौम्या के बड़े होने की दुहाई देते हुए मां को समझाते, तो मां सौम्या को दक़ियानूसी और पुराने ख़्याल का बनाने का आरोप लगातीं. हारकर पिता ने इकलौती बेटी को हॉस्टल भेज दिया.
वहीं अलका को पारंपरिक विवाह से तो कोई समस्या थी नहीं, पर रोमांटिक टीवी सीरियल्स व फिल्में देखकर उसने कुछ सपने ज़रूर देखे थे. पति के साथ रोज़ घूमना-फिरना, कभी बाहर खाना, तो कभी मॉल में शॉपिंग, घरेलू काम भी मिल-जुलकर करना. उसके मन में पति की अलग-सी रोमांटिक छवि थी.
अलका के घरवालों को रोहित पसंद आ गया, वहीं वो भी रोहित और उसके घरवालों को पसंद आ गई. रोहित का छोटा-सा परिवार था, एक छोटी बहन और माता-पिता, जो भोपाल में रहते थे. दिल्ली में किसी प्रतिष्ठित पत्रिका में काम करनेवाला रोहित अकेले ही रहता था. शादी के कुछ दिन बाद वो रोहित के साथ दिल्ली आ गई.
शुरुआती दिन तो अच्छे बीते, पर कुछ दिन बाद अलका को रोहित से शिकायतें होने लगीं कि वो बाकी लोगों की तरह क्यों नहीं है. कैसे-कैसे ख़्वाब थे उसके, फिल्म्स और टीवी सीरियल्स देखकर कैसी कल्पनाएं की थीं उसने, पर ख़्वाब ख़्वाब ही रह गए. वैसे रोहित में न कोई बुरी आदत थी, न कोई कमी, बस वो सरल-सा था, जो दिखावटी जीवन नहीं जी पाता था.
उस दिन कनाट प्लेस घूमते हुए अलका की निगाह एक स्मार्ट जोड़े पर पड़ी. वो तो लड़के को ही देखती रह गई. इतना स्मार्ट कि मॉडल्स तक फीके पड़ जाएं. उसकी निगाहें तो जैसे लड़के से हट ही नहीं रही थीं कि सहसा अपना नाम सुनकर चौंक उठी. “सौम्या” वो लगभग चीख पड़ी और लपककर दोनों ऐसे गले मिलीं जैसे बिछड़े हुए सदियां बीत गई हों.
“सौम्या! माई गॉड! कितना बदल गई है तू. मैं तो पहचान ही नहीं पाई तुझे.”
“मैं क्या बदल गई, सब इनका कमाल है. माय डार्लिंग हबी.” एक अदा से कहते हुए सौम्या ने उसी स्मार्ट लड़के की ओर इशारा किया, “हेलो, माइसेल्फ मोहित.”
अलका की तो जैसे सांस ही रुक-सी गई. आपस में औपचारिक परिचय के बाद सौम्या ने उन लोगों को अपने घर डिनर के लिए आमंत्रित किया. सौम्या के घर पहुंचकर अलका उसका महंगे व विदेशी चीज़ों से सजा शानदार घर देखती ही रह गई. दोनों सहेलियां बेडरूम में आ गईं. “सौम्या, जानती है आज तुझे देखकर मुझे कितनी ईर्ष्या हो रही है? तू तो पहले ही इतनी सुंदर और स्मार्ट थी, अब और कितना निखर गई है. कौन कहेगा कि तू शादीशुदा है और ये मोहित कहां से आ टपका? कहां गए तेरे वो सब दीवाने?” अलका एक सांस में बोलती गई.
“अलका, याद है अपने कॉलेज में मनीषा थी न, उसी का कज़िन है मोहित. हम एक पार्टी में मिले. फिर दो-चार मुलाक़ातों में हम समझ गए कि वी आर मेड फॉर ईच अदर. जिसे मैं अपने सपनों में ढूंढ़ती थी, वो मोहित ही था. यहीं फैशन फोटोग्राफर है. उसने तो मेरा प्रोफाइल ही बदल दिया. अपनी तो ऐश हो रही है और तू सुना.”
अलका चुप. उसे लगा उसके पास सुनाने के लिए जैसे कुछ है ही नहीं. किसी तरह मन को नियंत्रित कर उसने कह दिया, “ठीक ही है. अपनी ज़िंदगी भी कट ही रही है.”
डिनर में तो जैसे मोहित का सम्मोहन पूरा ही हो गया. बात करने का ऐसा तरीक़ा कि सामनेवाला प्रभावित हुए बिना रह नहीं सकता. आवाज़ में एक कशिश और मुस्कुराहट. तौबा-तौबा. उस पर गहरी आंखों का जादू. ऐसा लगता कि दिल के अंदर तक सब पढ़ लेंगी.
अलका ने तो दुबारा मोहित की आंखों से आंखें मिलाई ही नहीं. अकेले में उसने सौम्या से कह ही दिया, “तू सचमुच बड़ी क़िस्मतवाली है. बस, ये समझ ले तेरे हाथ असली हीरा लगा है और मैं? मुझे मिला अमेरिकन डायमंड. जो न सोसाइटी में पहना जा सकता है, न ही उसकी कोई क़ीमत ही होती है. हां, अपने पास भी हीरा होने की झूठी तसल्ली की जा सकती है.”
उसके बाद से जाने क्यों अलका से अनचाहे रोहित की उपेक्षा-सी होने लगी. ऐसा नहीं था कि वो जान-बूझकर ऐसा करती. उसका अवचेतन मन जाने कैसे-कैसे काम कराने लगा. कभी शाम को रोहित के आने पर उसका सिर ऐसा दर्द कर रहा होता कि वो चाय तक बनाने की स्थिति में न होती, तो कभी रोहित की पसंद-नापसंद भूलकर भोजन बना बैठती. लेकिन रोहित कभी नाराज़ न होता, बल्कि परिस्थितियों के साथ सामंजस्य बैठा ही लेता.
सौम्या के अलावा यहां उसका था ही कौन, इसलिए वो जब-तब उससे मिलने अकेले ही चली जाती. आज अलका ने पाया कि सौम्या कुछ गुमसुम-सी थी. “क्या हुआ सौम्या? सब ठीक तो है?”
“हां ठीक है.” सौम्या ने सहज दिखने का प्रयास तो किया, पर असफल रही.
“नहीं सौम्या, तू कुछ तो छुपा रही है. तेरी आंखें कह रही हैं कि कोई न कोई बात ज़रूर है.”
“क्या बताऊं अलका? मैं तो जैसे सब हार गई. कुछ दिनों से मुझे मोहित के रंग-ढंग बदले नज़र आ रहे थे, पर मैंने सोचा मेरी नज़र का धोखा होगा, लेकिन धोखा तो कुछ और ही निकला. उसके कई औरतों से संबंध हैं और उस पर तारीफ़ ये कि पूछने पर जनाब ने बड़ी सहजता से स्वीकार कर लिया जैसे कुछ हुआ ही न हो. जब मैंने ज़्यादा ऐतराज़ जताया, तो कहने लगे कि मैंने तुम्हें मॉडर्न समझा था, पर तुम्हारी भी वही आउटडेटेड सोच निकली. शादी का मतलब ग़ुलामी नहीं होता कि हर बात के लिए परमिशन लेनी पड़े. उसके अनुसार पति-पत्नी के रिश्ते में स्पेस तो होना ही चाहिए और जब तक हम दोनों एक-दूसरे की पर्सनल और प्राइवेट लाइफ में दख़ल नहीं देंगे, हमारा रिश्ता बरक़रार रहेगा. वरना…” कहते-कहते उसकी आवाज़ भर्रा गई और आंखें भीग गईं.
अलका तो स्तब्ध रह गई. झूठी तसल्ली देने में भी ख़ुद को असफल समझकर, वो बिल्कुल चुप-सी रही. कुछ ही देर में सौम्या संभल गई और बोली, “तूने एक दिन अमेरिकन डायमंड और असली हीरे की बात की थी. याद है न? तू बहुत भोली है अलका, पर मैंने दुनिया देखी है. अब मैं जान सकी कि हक़ीक़त में वो ही अपना होता है, जो तुमको अपना समझे, तुम्हारी क़द्र करे. कभी मेरे कितने बॉयफ्रेंड्स थे और दूसरी लड़कियों से उनके रिलेशंस से मुझे कुछ भी फील नहीं होता था, लेकिन आज? आज मोहित के संबंधों के बारे में पता चलते ही मुझे ज़िंदगी ही व्यर्थ-सी लगने लगी.
सच कहूं, तो मैं अब समझ पाई कि विवाह के बाद पति-पत्नी का एक-दूसरे पर कितना अधिकार हो जाता है और अंतर्मन कितना पज़ेसिव, कितना ईर्ष्यालु हो उठता है.”
अलका तो बस सौम्या का मुंह ही देखती रह गई.
“अलका, ये रिश्ते भी बड़े अजीब होते हैं. जब तक हम इनमें बंधते नहीं, तब तक इनके बारे में हमारी समझ अधूरी ही रहती है. इन पुरुषों की फ़ितरत हम स्त्रियों से एकदम अलग होती है. पत्नी के अलावा अन्यत्र संबंध का तो इनको बहाना चाहिए. शायद इससे इन्हें आत्मिक संतुष्टि मिलती है या इनका अहं, इनका पुरुषत्व गर्व अनुभव करता है. रही बात हीरे की, तो असली हीरा वो ही होता है, जो अपनी पत्नी की क़द्र कर सके, उसे अपना और अपने को उसका समझ सके, जिसके लिए ज़िंदगी ख़ुद से शुरू होकर पत्नी तक हो, बस.
मैं लड़कों के बारे में तुझसे अधिक जानती हूं, इसलिए दावे के साथ कह सकती हूं कि रोहित जैसे लोग कम ही होते हैं. जैसा भी हो, तेरा रोहित तेरा तो है. बस, थोड़ा उसे समझकर तो देख. रोहित के सरल व्यक्तित्व की सादगी पर कुर्बान होने का दिल करता है.”
अलका तो हैरान रह गई. उसे यूं लगा कि वो आज तक रोहित की क़द्र ही नहीं कर सकी और उसकी उपेक्षा के लिए उसका मन अपने को ही दोषी मान रहा था. उसकी आंखों के सामने अपना और रोहित का व्यवहार घूमने लगा. क्या कमी थी उसके रोहित में? बस, वो दिखावटी जीवन ही तो नहीं जी पाता था? अपराधबोध का भाव उसे अपने आपसे आंख चुराने पर मजबूर कर रहा था और वो तुरंत घर लौटने को बेचैन हो उठी थी.
रात में जब अकेलापन मिला, तब उसका मन न जाने कहां-कहां भटकने लगा था. अब तक की सारी बातें सोचते-सोचते और रोहित के बालों में उंगलियां फिराते-फिराते कब उसकी आंखों से आंसू बहकर उसके अंतर्मन को धोकर पवित्र कर गए और नींद भी आ गई, उसे पता ही नहीं चला. लेकिन सोते में भी उसका अंतर्मन सोच रहा था कि इस अंधेरी रात के बाद एक नया सवेरा होनेवाला है.

Sunday, September 29, 2019

तलाक़ दूँगी , लेकिन मेरी भी एक शर्त है

जब मैं रात को घर पंहुचा तो मेरी पत्नी ने खाना लगाया। मैंने उसका हाथ अपने हाथों में लिया और कहा मुझे तुमसे कुछ जरूरी बात कहना है। वो शांत बैठकर खाना खा रही थी। उसकी आखों में कुछ दर्द सा साफ़ नज़र आ रहा था। अचानक मुझे नहीं पता कैसे कहूं मगर मुझे उसे बताना ही था। मैंने बड़ी शांति से कहा - मुझे तलाक चाहिए। लगा जैसे उसे मेरे शब्दों से कुछ फर्क नहीं पड़ा बल्कि उसने मुझसे पूछा क्यों तलाक चाहिए ?
मैंने उसके सवाल को अनसुना किया तो उसे गुस्सा आ गया। उसने चम्मच उठाकर फेंक दिया और जोर से चिल्लाई - तुम इन्सान नहीं हो ! उस रात, हमने एक दुसरे से बात नहीं की, वो रो रही थी !
मुझे पता था कि वो जानना चाहती थी कि आखिर ऐसा क्या हुआ जो हमारा रिश्ता टूटने की कगार पर आ गया। पर मेरे लिए उसके सवालों का जवाब दे पाना नामुमकिन था। मैं अब किसी और से (प्रिया नाम था उसका) प्यार करने लगा हूँ। अब मुझे उससे प्यार नहीं रहा। मैंने उसे उसके बरसो के प्यार की सजा दी थी।
भरे मन से मैंने तलाक के पेपर तैयार किये। उसमें लिखा था कि वह पूरा घर, कार और कंपनी की 30% शेयर ले सकती है इस तलाक के बदले में। लेकिन उसने उन पेपर्स को देखा और उनके टुकड़े-टुकड़े कर दिए।
वो औरत जिसने मेरे साथ जीवन के दस साल बिताये थे वो आज मेरे लिए अनजान हो चुकी थी। मुझे इन दस सालों का जो उसने मेरे लिए बर्बाद किये। मगर मैं  क्या करूँ जो हो चूका उसे मैं बदल नहीं सकता था।  क्योंकि मैं किसी और से अपनी पत्नी से भी ज्यादा प्यार करने लगा था।
आख़िरकार उसके सब्र का बांध टूट गया और वो फुट-फुट कर मेरे सामने रोने लगी।  मेरे लिए उसका रोना एक तरह से उसकी रिहाई की तरह था। तलाक की ये बात जो कई दिनों से मुझे परेशान कर रही थी अब बिलकुल साफ़ हो चुकी थी !
अगले दिन मैं घर काफी लेट आया। मैंने देखा कि वो टेबल पर बैठ कर कुछ लिख रही थी। मैंने शाम का खाना नहीं खाया था लेकिन फिर भी में सीधे ऊपर जाकर अपने कमरे में सो गया। क्योंकि पूरा दिन प्रिया के साथ रहने और कई जगह घूमने के बाद मैं थक गया था।
वो शायद रात को उसी टेबल पर लिखते-लिखते सो गई थी। सुबह उसने तलाक देने की शर्ते बताई। वो मुझसे कुछ भी लेना नहीं चाहती थी। उसे सिर्फ तलाक से पहले एक  महीने का समय चाहिए था। उसने आग्रह किया कि इस एक महीने में हम दोनों वही पुराना वाला जीवन जीयें जितना संभव हो सके। क्योंकि आने वाले महीने में हमारे बेटे की परीक्षा है। वह नहीं चाहती थी कि हमारे टूटे रिश्ते का प्रभाव उसकी पढ़ाई पर पड़े।
मुझे भी यह ठीक लगा। मगर वो कुछ और भी चाहती थी जेसे शादी के दिन मैं उसे उठा कर अपने शयनकक्ष तक ले गया था। उसी तरह हर रोज एक महीने तक मैं उसे शयनकक्ष से उठा कर मुख्य द्वार तक ले जाऊं। मुझे लगा यह पागलपन है मगर इन आखरी दिनों को थोडा अच्छा बनाने के लिए मैंने उसकी यह  शर्त स्वीकार कर ली।
मेने प्रिया को अपनी पत्नी की सभी शर्ते बताई। वो हँसने लगी। उसे लगा मेरी पत्नी कितने भी तरीके अपना ले तलाक होना तो तय है।
मेरी पत्नी और मैं  किसी से भी इस दौरान नहीं मिले थे। लेकिन उस दिन जब मैं उसे पहली बार उठाकर गेट तक लेकर गया तो हम दोनों काफी अजीब महसूस  रहे थे। पीछे से हमारा बेटा भी खिलखिलाकर खुश हो रहा था।
अगले दिन यह काम थोडा सामान्य और आसान हो गया। वह मेरे सीने से लगी थी और मैं उसकी खुशबू महसूस कर रहा था। ऐसा लगा जेसे कई दिनों बाद मुझे ये खुशबू मिल रही थी या फिर कई दिनों से मैंने उसके होने का महसूस नहीं किया था। पहले जितनी उसमें वो कसाव नहीं था और चहरे पर कुछ हलकी झुर्रियाँ  नजर आ रही थी। और बाल भी सफ़ेद होने लगे थे। ये वही औरत थी जिसने अपने जीवन के 10 साल मुझे समर्पित किये थे।
चोथे दिन जब मैंने उसे उठाया तो वो पुरानी रोमाँच लौटने लगी थी। पांचवे और छठे दिन वो पुराना प्यार फिर जागने लगा। मैंने प्रिया को इस बारे में कुछ नहीं बताया था। अब उसे उठाना और आसन हो गया था। शायद हर रोज यह सब करने का मैं आदि हो गया था।
एक दिन वह अपनी पसंद की साड़ी निकाल रही थी। लेकिन कुछ खास नहीं ढूंढ पाई। उसने साँस भरते हुए कहा कि उसके सारे कपडे बड़े पड़ने लगे हैं। तब मुझे पता चला कि वह काफी दुबली हो गयी है और इसीलिए मैं उसे आसानी से उठा पा रहा था।
मेरे दिल को एक झटका सा लगा। उसने अपने दिल में काफी सारा दर्द छुपा रखा था पता नहीं कैसे मैं आगे बढ़ा और उसके सिर को छूकर देखा। अचानक हमारा बेटा आया और बोला कि पापा ये तो मम्मा को उठाकर बहार ले जाने का समय हो गया है। उसके लिए अपने पापा द्वारा मम्मा को इस तरह उठाकर ले जाते हुए देखना जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गया था।
मेरी बीवी ने हमारे बच्चे को बुलाया और जोर से उसे गले लगा लिया। मैंने अपना चेहरा दूसरी तरफ कर लिया। मुझे लगा कहीं मैं अपना निर्णय न बदल लूँ। मैंने  अपनी पत्नी को रोज की तरह उठाया और बेडरूम से सिटींग रूम होते हुए हॉल तक लाया। उसने प्यार से अपने दोनों हाथ मेरी गर्दन के आस-पास रख दिए। मैंने उसे जोर से पकड़ रखा था बिलकुल हमारे सुहागरात की तरह।

मगर उसका इतना कम वजन मुझे परेशान कर रहा था। महीने के आखरी दिन जब मैंने उसे उठाया तो मेरे लिए एक कदम भी चल पाना मुश्किल हो रहा था। हमारा बेटा स्कूल जा चूका था। मैं अपनी कार से ऑफिस गया और कार से कूद कर बाहर आ गया बिना कार को लॉक किये। मुझे डर था कि अब एक पल की भी देरी मेरा इरादा बदल देगी। मैं उपर गया। प्रिया ने दरवाज़ा खोला और मेने उससे कहा - सॉरी प्रिया ! अब मैं अपनी पत्नी से तलाक नहीं लेना चाहता।
उसने मुझे देखा और मेरे सिर पर हाथ फेरकर कहा - तुम्हें बुखार तो नहीं है ? मैंने उसका हाथ हटाया और कहा - सॉरी प्रिया ! अब मुझे अपनी पत्नी से तलाक नहीं चाहिए।
हमारी शादीसुदा जिंदगी शायद हम दोनों के ध्यान न देने की वजह से बोरिंग हो गयी थी। लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं कि हम एक-दुसरे से प्यार नहीं करते। अब मुझे एहसास हुआ है कि जिस दिन मैं उसे शादी करके अपने घर लाया था उस दिन से जीवन के आखरी दिन तक मुझे उसका साथ निभाना है।
प्रिया के होश उड़ गए। उसने मुझे एक जोरदार चाँटा जड़ दिया मेरे मुह पर। वह रोने लगी और दरवाजा अंदर से बंद कर लिया। मैं सीढ़ियों से नीचे उतरा और आकर अपने कार में बेठ गया।
आगे एक फुल वाले की दुकान पर रुका और अपनी प्यारी पत्नी के लिए एक सुंदर सा गुलदस्ता लिया। दूकानदार ने पूछा कि इस पर क्या लिखना है ? मैंने मुस्कुराते हुए कहा कि "मैं तुम्हें  जीवन के आखरी दिन तक यूँ ही उठाता रहूँगा मेरी अर्धांगिनी। "
उस शाम जब मैं घर आया हाथों में गुलदस्ता लिए। मेरे चेहरे पर एक मुस्कान थी। मैं उपर अपने कमरे की तरफ भाग कर गया। लेकिन तब तक वह मुझे छोड़ कर इस दुनिया से जा चुकी थी हमेशा के लिए। वो कई महीनो से कैंसर से लड़ रही थी लेकिन मैं प्रिया के साथ इतना खोया हुआ था कि कभी ध्यान ही नहीं रहा। 
उसे पता था वह जल्दी ही मुझे छोड़ कर जाने वाली है इसलिए वह मुझे और मेरे बेटे के रिश्ते को टूटने से बचाना चाहती थी। मैं नीच उससे तलाक लेना चाहता था लेकिन फिर भी उसने मुझे अपने बच्चे की नज़रों में एक प्यारा पति और पिता बना दिया था।
जीवन की छोटी-छोटी बातें  रिश्तों में बहुत महत्त्व रखती है। बड़ा घर, बड़ी कार और बैंक बैलेंस ये खुशियों का हिस्सा जरुर बन सकते हैं मगर अपनों के बिना इनकी कोई कीमत नहीं।

मेरी बहु मेरा गुरूर....!!!

रश्मि...जब से वो घर में आयी ना, पूरा घर झिलमिला से गया। चेतन के माँ पापा को हमेशा से एक बेटी चाहिए थी, मगर इसे किस्मत का खेल ही कहिये कि चेतन के बाद उनकी कोई औलाद हुई ही नही। चेतन को उन्होंने बहुत लाड़ प्यार से पाला था, आखिर उनका इकलौता बेटा जो था।
मगर हेमा जी और मुकेश जी के मन की चाहत हमेशा एक टीस की तरह उनके दिल में रही कि काश एक बेटी तो होती, पर जब से रश्मि आयी है उनकी ये मुराद पूरी हो गयी है, रश्मि को तो आज तक लगा ही नही कि वो घर की बेटी नही बहु है।
रश्मि को आज भी याद है वो दिन जब चेतन अपने मम्मी पापा के साथ उसे देखने आया था, तब हेमा जी ने जिस तरह भरी आंखों से उसे गले लगाया वो समझ गई कि वो एक घर छोड़ कर दूसरे घर ही जा रही है।
"चेतन जा ना, क्यों नही जा रहा तू, आज तो संडे है और तू लैपटॉप पर लगा है देख मैंने टिकट भी बुक कर दी है।" हेमा जी चेतन से बोली।
"पर माँ मेरी कल बहुत इम्पोर्टेन्ट मीटिंग है, देखो माँ टाइम नही मेरे पास, मैं अगले हफ्ते ले जाऊंगा ना।" चेतन ने लैपटॉप में नजर गड़ाए हुए कहा।
हेमा जी ने रश्मि के चेहरे पर आई मायूसी को भांप लिया।
"ठीक है, तो एक काम कर तू अपना और पापा का खाना बाहर से आर्डर कर दे, मैं और रश्मि जा रहे है फ़िल्म देखने।" हेमा जी ने उठते हुए कहा।
"मगर माँ, आप तो कभी पिक्चर जाती नही।" चेतन ने हैरानी से पूछा।
"अब जाऊंगी, अपनी बेटी के साथ ...तू लैपटॉप पर काम कर।"  हेमा जी मुस्कुराते हुए बोली।
"अरे मैंने क्या बिगाड़ा है तुम्हारा, मैं भी चलूंगा।" मुकेश जी भी उठ खड़े हुए।
"बेटा तुम बैठो, औऱ वो क्या कहते है उसको....हां पिज़्ज़ा...पिज्जा आर्डर कर लेना अपने लिए।" मुकेश जी मुस्कुराते हुए उनके साथ चले गए।
और बिचारा चेतन उनको जाते हुए देखता रहा। हेमा जी के तो पैरो को पंख लग गए थे, रश्मि के रूप में उन्हें एक नई सहेली जो मिल गयी थीं। वही मुकेश जी को बेटी मिल गयी,चेतन का तो काम ही ऐसा था कि उसे अपने मम्मी पापा के साथ ज्यादा समय बिताने को नही मिलता,उसका एक ही सपना था ग्रीन कार्ड पाना, वो अमेरिका में बसने के सपने देखता था, इसीलिए दिन रात काम मे डूबा रहता था।
जब से रश्मि आयी है हेमा जी और मुकेश जी की जिंदगी में चहल पहल हो गयी, अभी थोड़े समय पहले की बात थी मुकेश जी के घुटनो में बड़ा दर्द रहता था, रश्मि ने अब सख्त हिदायत दे दी, दिन भर tv के आगे बैठना बन्द और अब से मॉर्निंग वाक और योगा शुरू।
शुरुआत में तो उन्होंने थोड़ी आनाकानी की, पर अब रश्मि कहाँ आसानी से पीछा छोड़ने वाली थी, आखिर दोनों की उसकी बात माननी ही थीं। वही चेतन भी बहुत खुश था कि चलो मम्मी पापा का दिल लगा रहता है, अब वो बेफिक्र हो अपने सपने को पूरा कर सकता है।
"माँ.... रश्मि... पापा.... !!"चेतन लगभग चिल्लाते हुए आया।
"क्या हुआ?" माँ ने पूछा।
"माँ मेरा US का वीसा लग गया है अब मैं अगले हफ्ते ही अमेरिका जा रहा हूँ, कंपनी मुझे 2 साल के लिए अमरीका भेज रही है।' चेतन की खुशी की कोई सीमा ही नही थी।
"देखना माँ मैं जल्द ही वहाँ आप तीनों को बुला लूंगा, हम तीनों वहाँ साथ ही रहेंगे।' चेतन ने मां को गोल गोल घुमाते हुए कहा।
"बेटा, तू रश्मि को ले जा। हम बाद में आते रहेंगे।" पापा ने कहा।
"नही पापा, अभी पॉसिबल नही, पर मैं जल्द ही आप लोगो का वीसा लगवाने की कोशिश करता हूँ। जल्द ही हम सब अमेरिका में होंगे" चेतन ने चहकते हुए कहा।
चेतन की तैयारियां शुरू हो गयी, रश्मि का मन उदास था मगर वो ये सोच कर खुश थी कि आखिर चेतन का सपना सच होने जा रहा है।
"रश्मि, मैं बहुत खुशकिस्मत हूँ कि तुम मेरी जिंदगी में हो, मैं जल्द ही तुम्हे अपने पास बुला लूंगा।अपना ख्याल रखना" चेतन ने रश्मि को गले लगाते हुए कहा।
सब एयरपोर्ट पर उसे छोड़ने गए। रश्मि भीगी आंखों के साथ उसे विदा कर आई।
रश्मि के प्रति हेमा जी मुकेश जी का प्यार और बढ़ गया, कब वो उनकी बहू से बेटी और न जाने कब वो बेटा बन गयी पता ही नही चला।
"पापा, आपने फिर से चॉकलेट खाई, कितनी बार मुझे आपको मना करना पड़ेगा, आप सच में ना, उस बिट्टू के बच्चे को बताती हूँ वही रोज चॉकलेट ला कर देता है न आपको।" रश्मि ने गुस्से में कहा।
मुकेश जी ने बचपना दिखाते हुये कान पकड़ लिए, रश्मि चाह कर भी अपनी हंसी रोक नही पायी। कहने को सब सही था मगर कुछ था जो सबको खटक रहा था।
चेतन को अमेरिका गए 8 महीने से ज्यादा हो गए, वो कोई न कोई बहाना बना कर वीजा टालता रहा। "माँ मुझे समय दो,यहाँ आप सब कैसे रहेंगे? मैं जल्द ही कुछ इतजाम करता हूँ, माँ रश्मि भी आपके साथ ही आ जायेगी। मैं फ़ोन रखता हूँ, मुझे काम है।" चेतन ने कहा।
धीरे धीरे सबके मन मे एक फांस घिरने लगी, मगर तीनो एक दूसरे के सामने चट्टान बने रहते। चेतन का फ़ोन भी आजकल कम हो गया। डेढ़ साल बीत रहा था। इसी दौरान रश्मि का मुंहबोला भाई अमेरिका गया।
"रश्मि दी, मुझे आपके कुछ बहुत जरूरी बात करनी है।" पुष्पक ने कहा।
"हाँ बोलो पुष्पक।" रश्मि ने कहा।
"दी, प्लीज आप खुद को संभालिएगा, जो मैं बता रहा हूँ।" पुष्पक ने जब कहा तो रश्मि का दिल धक से रह गया।
"दी, जीजू ने यहाँ किसी अमेरिकन लड़की से शादी कर ली है और वो उसी के साथ रह रहे है।" पुष्पक ने जैसे ही कहा रश्मि को लगा दुनिया गोल गोल घूम रही है वो गश कहा कर गिर गयी।
"चेतन, जो मैंने सुना सब सच है क्या? तुझे शर्म नही आई रश्मि को हम सब को इतना बड़ा धोखा देते हुए। क्या इस दिन के लिए हमने तुझे पाला पोसा पढ़ाया बड़ा किया।" मुकेश जी गुस्से में बोले जा रहे थे।
"पापा, आपने कुछ अलग तो नही किया, जानवर भी बच्चे पैदा करते है, बड़ा करते है लेकिन जब उनको उनको मंजिल मिल जाती है वो अपनी राह चले जाते है, पापा मेरे सपने बहुत बड़े है, आप मां और रश्मि कभी भी उनको समझ नही पाओगे।मैं जल्द ही डिवोर्स पेपर भेज दूंगा" चेतन ने कहा।
मुकेश जी को लगा सब कुछ चेतनाशून्य हो गया। घर मे एक मातम सा छा गया। कुछ दिनों बाद जब रश्मि के पिताजी रश्मि को लेने आये तो उसने उनके साथ जाने से मना कर दिया।
"पापा, मैंने कभी ये महसूस नही किया कि मैं कभी अपने घर से दूर आयी हूँ, ये मेरा घर है ये मेरे मम्मी पापा है मैं कैसे इन्हें छोड़ कर जा सकती हूँ। चेतन ने जो किया बहुत गलत किया मगर आज मैं इन्हें छोड़ कर जाती हूँ तो जिंदगी भर मैं खुद को माफ नही कर पाउंगी।" रश्मि ने दृढता से कहा।
मुकेश जी हेमा जी ने भी उसे बहुत समझाया पर वो टस से मस नही हुई। रश्मि ने भी जॉब शुरू कर दी, अब वो उस घर की बेटा बन चुकी थी, तीनो अपने अंदर ढेर सारा दर्द समेटे खुद को संभालने की कोशिश कर रहे थे, हेमा जी की आँखे रश्मि को देख भर आती।
"लगता है हमने पिछले जन्म में जरूर कोई पुण्य किये थे जो रश्मि हमारी जिंदगी में आई, वो मेरी बहु नही मेरा बेटा है मेरा गुरुर है।" मुकेश जी ने हेमा से कहा।
धीरे धीरे जिंदगी पटरी पर दौड़ने लगी। एक रात मुकेश जी ऐसे सोये की अगले दिन उठ न सके।
"चेतन, पापा नही रहे।" रश्मि बस इतना ही कह पायी।
2 मिनट की चुप्पी के बाद जो चेतन ने कहा उसकी कल्पना रश्मि सपने में भी नही कर सकती थी।चेतन ने आने में अपनी असमर्थता जता दी, हेमा जी ने रश्मि की आंखों को पढ़ लिया।
धीरे धीरे सब रिश्तेदार इक्ट्ठा हो गए। ये निर्णय हुआ कि चेतन का चचेरा भाई सुदीप मुखग्नि देगा। अर्थी सज चुकी थी। मुकेश जी अपनी अंतिम यात्रा पर थे।
मुखग्नि का समय आया, जैसे ही सुदीप आगे आया हेमा जी ने उसका हाथ पकड़ लिया।
"ये अंतिम अधिकार तो सिर्फ एक बेटा ही निभा सकता है औऱ जब मेरा बेटा यहाँ है तो कोई और क्यों ये करेगा?" हेमा जी ने कहा।
"रश्मि...... अपने बाबूजी को मुखग्नि तुम ही दोगी।" हेमा जी ने कहा।
दूर कहीं आसमान में मुकेश जी एक मुस्कुराहट के साथ अपने बेटे को अपना आखिरी कर्तव्य निभाते देख रहे थे।

दोस्तो, ये कहानी एक सच्ची घटना पर आधारित है। ससुराल कभी घर नही बन सकता.... बहु कभी बेटी नही बन सकती....सास कभी माँ नही बन सकती इन सब बातों को झुठलाते हुए रश्मि ने एक बहु से बेटे के सफर को तय किया।

Saturday, September 28, 2019

बुढ़िया की सुई

एक बार किसी गाँव में एक बुढ़िया रात के अँधेरे में अपनी झोपडी के बहार कुछ खोज रही थी .तभी गाँव के ही एक व्यक्ति की नजर उस पर पड़ी , “अम्मा इतनी रात में रोड लाइट के नीचे क्या ढूंढ रही हो ?” , व्यक्ति ने पूछा.
 ” कुछ नहीं मेरी सुई गुम हो गयी है बस वही खोज रही हूँ .”, बुढ़िया ने उत्तर दिया.
फिर क्या था, वो व्यक्ति भी महिला की मदद करने के लिए रुक गया और साथ में सुई खोजने लगा. कुछ देर में और भी लोग इस खोज अभियान में शामिल हो गए और देखते- देखते लगभग पूरा गाँव ही इकठ्ठा हो गया.
सभी बड़े ध्यान से सुई खोजने में लगे हुए थे कि तभी किसी ने बुढ़िया से पूछा ,” अरे अम्मा ! ज़रा ये तो बताओ कि सुई गिरी कहाँ थी?”
” बेटा , सुई तो झोपड़ी के अन्दर गिरी थी .”, बुढ़िया ने ज़वाब दिया .
ये सुनते ही सभी बड़े क्रोधित हो गए और भीड़ में से किसी ने ऊँची आवाज में कहा , ” कमाल करती हो अम्मा ,हम इतनी देर से सुई यहाँ ढूंढ रहे हैं जबकि सुई अन्दर झोपड़े में गिरी थी , आखिर सुई वहां खोजने की बजाये यहाँ बाहर क्यों खोज रही हो ?”
” क्योंकि रोड पर लाइट जल रही है…इसलिए .”, बुढ़िया बोली.

शायद ऐसा ही आज के युवा अपने भविष्य को लेकर सोचते हैं कि लाइट कहाँ जल रही है वो ये नहीं सोचते कि हमारा दिल क्या कह रहा है ; हमारी सुई कहाँ गिरी है . हमें चाहिए कि हम ये जानने की कोशिश करें कि हम किस फील्ड में अच्छा कर सकते हैं और उसी में अपना करीयर बनाएं ना कि भेड़ चाल चलते हुए किसी ऐसी फील्ड में घुस जाएं जिसमे बाकी लोग जा रहे हों या जिसमे हमें अधिक पैसा नज़र आ रहा हो .

मेजर ध्यानचंद जी का जीवन परिचय -- Major Dhyanchand's life introduction

ध्यान चंद हॉकी के एक महान जादूगर खिलाड़ी थे, उन्होंने अपने खेल के प्रदर्शन से पूरी दुनियां में हॉकी का नाम रोशन कर दिया और इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अपने नाम को अंकित कर दिया जिसका नाम ध्यान चंद था।
जब वह खेल के मैदान में आते थे तो विरोधी टीमें पनाहे मांगने लगती थी और अपना सिर उनकी टीम के आगे झुका लेती थी। वह एक ऐसे खिलाड़ी थे, कि वे किसी भी कोण का निशाना बनाकर गोल कर सकते थे। उनकी इसी योग्यता को देखते हुये उन्हें विश्व भर में हॉकी का जादूगर भी कहते थे।

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा :

ध्यानचंद का जन्म उत्तरप्रदेश के इलाहाबाद में 29 अगस्त 1905 को हुआ था। वे कुशवाहा, मौर्य परिवार के थे। उनके पिता का नाम समेश्वर सिंह था, जो ब्रिटिश इंडियन आर्मी में एक सूबेदार के रूप में काम कर रहे थे, साथ ही हाकी गेम भी खेलते थे। ध्यानचंद के दो भाई थे, मूल सिंह और रूप सिंह। रूप सिंह भी ध्यानचंद की तरह हाकी खेला करते थे, जो अच्छे खिलाड़ी थे।
इनके पिता आर्मी में थे। कुछ समय पश्चात उनके पिता का स्थानान्तरण झाँसी में हो गया और तब ध्यान चंद भी अपने पिता के साथ वही रहने लगे पिता का बार-बार स्थानान्तरण होने के कारण वह पढाई में ध्यान अच्छी तरह नहीं लगा पाये और उनका मन हॉकी खेलने में लगा रहा उन्होंने केवल छठी कक्षा तक ही पढाई की है।

हॉकी में उनकी दिलचस्पी :

बचपन में लोग इन्हें ध्यान सिंह के नाम से पुकारा करते थे जब वह छोटे थे तो वे अपने दोस्तों के साथ मिलकर पेड़ की डाली की हॉकी बना लिया करते थे और कपड़े की गेंद बनाकर खेलते थे। एक बार वह अपने पिता के साथ हॉकी का खेल देखने गये वहां उन्होंने एक पक्ष को हारता देख वह दुखी होने लगे तब वह चिल्लाकर अपने पिता से कहने लगे कि अगर मै कमज़ोर पक्ष की तरफ से खेलूँगा तो परिणाम कुछ और ही होगा।

तभी वहां खड़े एक आर्मी आफिसर ने उन्हें खेल के मैदान में जाने की इजाजत दे दी। वहां जाकर उन्होंने लगातार 4 गोल किये और वहां के लोगों को आश्चर्य चकित कर दिया उस समय वह केवल 14 साल के बालक थे, उनकी इस प्रतिभा को देखकर 16 साल की उम्र में उन्हें आर्मी में भर्ती कर लिया गया इसके बाद भी वह अपने आपको हॉकी से अलग नहीं कर पाये।

ध्यान चंद के पहले कोच का नाम भोले तिवारी था चूँकि आर्मी में कार्यरत होने के कारण उनके पास हॉकी खेलने का समय नहीं होता था पर फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी और उस समय वे रात को चाँद की रोशनी में हॉकी खेला करते थे।
वे हॉकी के दीवाने थे। आर्मी के साथ-साथ ही उन्होंने हॉकी में भी अपना कैरियर बनाया और 21वर्ष की उम्र में उन्हें न्यूजीलैंड जा रही भारतीय टीम में चुना गया। इस खेल में भारत ने 21 में 18 मैच जीते।

1928 एम्सटरडम ओलंपिक :

23 साल की उम्र में ध्यान चंद को 1928 में एम्सटरडम ओलंपिक में पहली बार भारतीय टीम के सदस्य के रूप में चुना गया यहाँ भारतीय टीम द्वारा खेले गये चार मैचों में 23 गोल किये और स्वर्ण पदक हासिल किया 1932 में वर्लिन ओलंपिक में ध्यान चंद को कप्तान बनाया गया।

15 अगस्त 1936 को हुये मैच में भारत ने जर्मनी को 8 –1 से हरा दिया और स्वर्ण पदक जीता। इस मैच को जर्मनी का हिटलर भी देख रहा था और जब खेल खत्म हुआ तो उसने ध्यान से मिलने की इच्छा जताई और उनसे मिलकर उनकी बहुत तारीफ भी की। हिटलर ने ध्यानचंद को अपनी टीम में आने के लिए भी कहा परन्तु मेजर ध्यानचंद ने पूर्ण रूप से मना कर दिया।

1932 में भारतीय टीम ने 37 मैच खेले और 338 गोल किये जिसमें से 133 अकेले ध्यान चंद ने किये थे। इनमें से 11 पर ध्यान चंद का नाम लिखा था।
इंटरनेशनल मैचों में 300 गोल का रिकॉर्ड भी ध्यान चंद के खाते में ही जाता है। उन्होंने अपने हॉकी जीवन में इतने गोल किये जितने गोल खिलाड़ी अपने पूरे जीवन के दौरान नहीं कर पाते है।

उनके ऐसे करिश्मायी खेल से हालैंड में उनकी हॉकी को तोड़कर देखा गया कि कही उसमें चुम्बक तो नहीं लगी है। जापान में उनकी हॉकी का प्रयोगशाला में परीक्षण भी हुआ कि कही इनकी हॉकी में गोंद उपयोग तो नही हुयी है।
1948 में 43 वर्ष की उम्र में वह आर्मी से सेवानिर्वृत्त हुये तो उसी वर्ष भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण से पुरुस्कृत किया

29 अगस्त, उनके जन्म को हम राष्ट्रिय खेल दिवस के रूप में मनाते है। राजीव गाँधी खेल रत्न पुरुष्कार, अर्जुन पुरुष्कार, गुरुद्रोणाचार्य पुरुष्कार वियना के एक स्पोर्ट्स क्लब में उनकी एक प्रतिमा स्थापित की गयी है।
जिनमें उनके चार हाथ है और चारों में स्टिक पकड़े हुये है।

दिल्ली के एक स्टेडियम के नाम को उनके नाम पर रखा गया है मेजर ध्यान चंद भारतीय ओलंपिक संघ द्वारा उन्हें शताव्दी का खिलाडी कहा गया है।

मेजर ध्यानचंद के बारे में  खास बातें :

ध्यानचंद ने 16 साल की उम्र में भारतीय सेना जॉइन की। भर्ती होने के बाद उन्होंने हॉकी खेलना शुरू किया। ध्यानचंद काफी प्रैक्टिस किया करते थे। रात को उनके प्रैक्टिस सेशन को चांद निकलने से जोड़कर देखा जाता। इसलिए उनके साथी खिलाड़ियों ने उन्हें 'चांद' नाम दे दिया।

1928 में एम्सटर्डम में हुए ओलिंपिक खेलों में वह भारत की ओर से सबसे ज्यादा गोल करने वाले खिलाड़ी रहे। उस टूर्नामेंट में ध्यानचंद ने 4 मैचों में 24 गोल किए। एक स्थानीय समाचार पत्र में लिखा था, 'यह हॉकी नहीं बल्कि जादू था। और ध्यानचंद हॉकी के जादूगर हैं।

हालांकि ध्यानचंद ने कई यादगार मैच खेले, लेकिन क्या आप जानते हैं कि व्यक्तिगत रूप से कौन सा मैच उन्हें सबसे ज्यादा पसंद था। ध्यानचंद ने बताया कि 1933 में कलकत्ता कस्टम्स और झांसी हीरोज के बीच खेला गया बिगटन क्लब फाइनल उनका सबसे ज्यादा पसंदीदा मुकाबला था।

1932 के ओलिंपिक फाइनल में भारत ने संयुक्त राज्य अमेरिका को 24-1 से हराया था। उस मैच में ध्यानचंद ने 8 गोल किए थे। उनके भाई रूप सिंह ने 10 गोल किए थे। उस टूर्नमेंट में भारत की ओर से किए गए 35 गोलों में से 25 गोल दो भाइयों की जोड़ी ने किए थे। ये थे रूप सिंह (15 गोल) और मेजर ध्यानचंद (10 गोल)। (एक मैच में 24 गोल दागने का 86 साल पुराना यह रेकॉर्ड भारतीय हॉकी टीम ने इंडोनेशिया में जारी एशियाई खेलों में हाल ही में तोड़ा है। हाल ही में भारत ने हॉन्ग कॉन्ग को 26-0 से मात देकर यह रेकॉर्ड तोड़ा।)

ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट दिग्गज सर डॉन ब्रैडमैन ने 1935 में एडिलेड में ध्यानचंद से मुलाकात की। ध्यानचंद को खेलते देख, ब्रैडमैन ने कहा कि ध्यानचंद ऐसे गोल करते हैं जैसे क्रिकेट में रन बनते हैं।

विएना के एक स्पोर्ट्स क्लब में ध्यानचंद के चार हाथों वाली मूर्ति लगी है, उनके हाथों में हॉकी स्टिक हैं। यह मूर्ति यह दिखाने का परिचायक है कि उनकी हॉकी में कितना जादू था।

ध्यानचंद की महानता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वह दूसरे खिलाड़ियों की अपेक्षा इतने गोल कैसे कर लेते हैं। इसके लिए उनकी हॉकी स्टिक को ही तोड़ कर जांचा गया। नीदरलैंड्स में ध्यानचंद की हॉकी स्टिक तोड़कर यह चेक किया गया था कि कहीं इसमें चुंबक तो नहीं लगी।

ध्यानचंद ने 1928, 1932 और 1936 ओलिंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व किया। तीनों ही बार भारत ने ओलिंपिक में गोल्ड मेडल जीता।

दुनिया के सबसे महान हॉकी खिलाड़ियों में से एक मेजर ध्यानचंद ने अतंरराष्ट्रीय हॉकी में बहुत ज्यादा गोल दागे। 22 साल के हॉकी करियर में उन्होंने अपने खेल से पूरी दुनिया को हैरान किया।

बर्लिन ओलिंपिक में ध्यानचंद के शानदार प्रदर्शन से प्रभावित होकर हिटलर ने उन्हें डिनर के लिए आमंत्रित किया था। जर्मन तानाशाह ने उन्हें जर्मनी की फौज में बड़े पद का लालच दिया और जर्मनी की ओर से हॉकी खेलने को कहा। लेकिन ध्यानचंद ने उसे ठुकराते हुए हिटलर को दो टूक अंदाज में जवाब दिया, 'हिंदुस्तान ही मेरा वतन है और मैं उसी के लिए आजीवन हॉकी खेलता रहूंगा।'

मृत्यु :

3 दिसम्बर 1979  को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, दिल्ली में लीवर कैंसर के कारण उनकी मृत्यु हो गयी।

Friday, September 27, 2019

जीवन में चार का महत्व

गृहस्थ गीता के अनमोल वचन

1. चार बातों को याद रखे :- बड़े बूढ़ों का आदर करना, छोटों की रक्षा करना एवं उनपर स्नेह करना, बुद्धिमानों से सलाह लेना और मूर्खों के साथ कभी न उलझना !

2. चार चीजें पहले दुर्बल दिखती हैं परन्तु परवाह न करने पर बढक़र दु:ख का कारण बनती हैं :- अग्नि, रोग, ऋण और पाप !

3. चार चीजों का सदा सेवन करना चाहिए :- सत्संग, संतोष, दान और दया !

4. चार अवस्थाओं में आदमी बिगड़ता है :- जवानी, धन, अधिकार और अविवेक !

5. चार चीजें मनुष्य को बड़े भाग्य से मिलती हैं :- भगवान को याद रखने की लगन, संतों की संगति, चरित्र की निर्मलता और उदारता !

6. चार गुण बहुत दुर्लभ है :- धन में पवित्रता, दान में विनय, वीरता में दया और अधिकार में निराभिमानता !

7. चार चीजों पर भरोसा मत करो :- बिना जीता हुआ मन, शत्रु की प्रीति, स्वार्थी की खुशामद और बाजारू ज्योतिषियों की भविष्यवाणी !

8. चार चीजों पर भरोसा रखो :- सत्य, पुरुषार्थ, स्वार्थहीन और मित्र !

9. चार चीजें जाकर फिर नहीं लौटतीं :- मुह से निकली बात, कमान से निकला तीर, बीती हुई उम्र और मिटा हुआ ज्ञान !

10. चार बातों को हमेशा याद रखें :- दूसरे के द्वारा अपने ऊपर किया गया उपकार, अपने द्वारा दूसरे पर किया गया अपकार, मृत्यु और भगवान !

11. चार के संग से बचने की चेष्टा करें :- नास्तिक, अन्याय का धन, पर(परायी) नारी और परनिन्दा !

12. चार चीजों पर मनुष्य का बस नहीं चलता :- जीवन, मरण, यश और अपयश !

13. चार पर परिचय चार अवस्थाओं में मिलता है :- दरिद्रता में मित्र का, निर्धनता में स्त्री का, रण में शूरवीर का और बदनामी में बंधु-बान्धवों का !

14. चार बातों में मनुष्य का कल्याण है :- वाणी के संयम में, अल्प निद्रा में, अल्प आहार में और एकांत के भगवत्स्मरण में !

15. शुद्ध साधना के लिए चार बातों का पालन आवश्यक है :- भूख से कम खाना, लोक प्रतिष्ठा का त्याग, निर्धनता का स्वीकार और ईश्वर की इच्छा में संतोष !

16. चार प्रकार के मनुष्य होते हैं : (क) मक्खीचूस - न आप खाये और न दूसरों को दे ! (ख) कंजूस - आप तो खाये पर दूसरों को न दे ! (ग) उदार - आप भी खाये और दूसरे को भी दे ! (घ) दाता - आप न खाय और दूसरे को दे ! यदि दाता नहीं बन सकते तो कम से कम उदार तो बनना ही चाहिए !

17. मन के चार प्रकार हैं :- धर्म से विमुख जीव का मन मुर्दा है, पापी का मन रोगी है, लोभी तथा स्वार्थी का मन आलसी है और भजन साधना में तत्पर का मन स्वस्थ है.

कर्म के बीज से इमानदारी की फसल उगाती है

इस साल मेरा पांच वर्षीय बेटा पहली कक्षा मैं प्रवेश पा गया.... क्लास मैं हमेशा से अव्वल आता रहा है !पिछले दिनों तनख्वाह मिली तो मैं उसे नई  स्कूल ड्रेस और जूते दिलवाने के लिए बाज़ार ले गया !
बेटे ने जूते लेने से ये कह कर मना कर दिया की पुराने जूतों को बस थोड़ी-सी मरम्मत की जरुरत है,वो अभी इस साल काम दे सकते हैं!अपने जूतों की बजाये उसने मुझे अपने दादा की कमजोर हो चुकी नज़र के लिए नया चश्मा बनवाने को कहा !मैंने सोचा बेटा अपने दादा से शायद बहुत प्यार करता है इसलिए अपने जूतों की बजाय उनकेचश्मे को ज्यादा जरूरी समझ रहा है !खैर मैंने कुछ कहना जरुरी नहीं समझा और उसे लेकर ड्रेस की दुकान पर पहुंचा...
दुकानदार ने बेटे के साइज़ की सफ़ेद शर्ट निकाली ... डाल कर देखने पर शर्ट एकदम फिट थी..फिर भी बेटे ने थोड़ी लम्बी शर्ट दिखाने को कहा !
मैंने बेटे से कहा : बेटा ये शर्ट तुम्हें बिल्कुल सही है तो फिर और लम्बी क्यों ?बेटे ने कहा :पिता जी मुझे शर्ट निक्कर के अंदर ही डालनी होती है इसलिए थोड़ी लम्बी भी होगी तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा....... लेकिन यही शर्ट मुझे अगली क्लास में भी काम आ जाएगी ...... पिछली वाली शर्ट भी अभी नयी जैसी ही पड़ी है लेकिन छोटी होने की वजह से मैं उसे पहन नहीं पा रहा !
 मैं खामोश रहा !!घर आते वक़्त मैंने बेटे से पूछा: तुम्हे ये सब बातें कौन सिखाता है बेटा ?बेटे ने कहा: पिता जी मैं अक्सर देखता था कि कभी माँ अपनी साड़ी छोड़कर तो कभी आप अपने जूतों को छोडकर हमेशा मेरी किताबों और कपड़ो पैर पैसे खर्च कर दिया करते हैं !
गली- मोहल्ले में सब लोग कहते हैं के आप बहुत ईमानदार आदमी हैं और हमारे साथ वाले राजू के पापा को सब लोग चोर, बे-ईमान, रिश्वतखोर और जाने क्या क्या कहते हैं, जबकि आप दोनों एक ही ऑफिस में काम करते हैं..... जब सब लोग आपकी तारीफ करते हैं तो मुझेषबड़ा अच्छा लगता है.....मम्मी और दादा जी भी आपकी तारीफ करते हैं ! पिता जी मैं चाहता हूँ कि मुझे कभी जीवन में नए कपडे, नए जूते मिले या न मिले लेकिन कोई आपको चोर, बे-ईमान, रिश्वतखोर या कुत्ता न कहे !
मैं आपकी ताक़त बनना चाहता हूँ पिता जी, आपकी कमजोरी नहीं !बेटे की बात सुनकरमैं निरुतर था!आज मुझे पहली बार मुझे मेरी ईमानदारी का इनाम मिला था !!आज बहुत दिनों बाद आँखों में ख़ुशी, गर्व और सम्मान के आंसू थे...

Thursday, September 26, 2019

एक पिता की प्रार्थना दामाद से

माँ की ममता का सागर ये,
          मेरी आँखों का तारा है !
कैसे बतलाऊँ तुमको ,
          किस लाड प्यार से पाला है !!

तुम द्वारे मेरे आए हो,
          मैं क्या सेवा कर सकता हूँ !
ये कन्या रूपी नवरत्न तुम्हें,
          मैं आज समर्पित करता हूँ !!

मेरे ह्रदय के नील गगन का,
          ये चाँद सितारा है !
मैं अब तक जान ना पाया था,
          इस पर अधिकार तुम्हारा है !!

ये आज अमानत लो अपनी,
         करबद्ध  निवेदन करता हूँ !
ये कन्या रूपी नवरत्न तुम्हें,
         मैं आज समर्पित करता हूँ !!

इससे कोई भूल होगी,
         ये सरला है , सुकुमारी है !
इसकी हर भूल क्षमा करना ,
         ये मेरे घर की राजदुलारी है !!

मेरी कुटिया की शोभा है,
         जो तुमको अर्पण करता हूँ !
ये कन्या रूपी नवरत्न तुम्हें ,
         मैं आज समर्पित करता हूँ !!

भाई से आज बहन बिछ्ड़ी ,
        माँ से बिछ्ड़ी उसकी ममता !
बहनों से आज बहन बिछ्ड़ी ,
        लो तुम्हीं इसके आज सखा !!

मैं आज पिता कहलाने का,
       अधीकर समर्पित करता हूँ !
ये कन्या रूपी नवरत्न तुम्हें,
       मैं आज समर्पित करता हूँ !!

जिस दिन था इसका जन्म हुआ,
       ना गीत हुए ना बजी शहनाई !
पर आज विदाई के अवसर पर,
       मेरे घर बजती खूब शहनाई  !!

यह बात समझकर मैं,
        मन ही मन रोया  करता हूँ !
ये गौकन्या रूपी नवरत्न तुम्हें,
         मैं आज समर्पित करता हूँ !!
ये गौकन्या रूपी नवरत्न तुम्हें,
     मैं आज समर्पित करता हूं .....


परमात्मा का आभार


एक पुरानी सी इमारत में था वैद्यजी का मकान था। पिछले हिस्से में रहते थे और अगले हिस्से में दवाख़ाना खोल रखा था। उनकी पत्नी की आदत थी कि दवाख़ाना खोलने से पहले उस दिन के लिए आवश्यक सामान एक चिठ्ठी में लिख कर दे देती थी। वैद्यजी गद्दी पर बैठकर पहले भगवान का नाम लेते फिर वह चिठ्ठी खोलते। पत्नी ने जो बातें लिखी होतीं, उनके भाव देखते , फिर उनका हिसाब करते। फिर परमात्मा से प्रार्थना करते कि हे भगवान ! मैं केवल तेरे ही आदेश के अनुसार तेरी भक्ति छोड़कर यहाँ दुनियादारी के चक्कर में आ बैठा हूँ। वैद्यजी कभी अपने मुँह से किसी रोगी से फ़ीस नहीं माँगते थे। कोई देता था, कोई नहीं देता था किन्तु एक बात निश्चित थी कि ज्यों ही उस दिन के आवश्यक सामान ख़रीदने योग्य पैसे पूरे हो जाते थे, उसके बाद वह किसी से भी दवा के पैसे नहीं लेते थे चाहे रोगी कितना ही धनवान क्यों न हो।

एक दिन वैद्यजी ने दवाख़ाना खोला। गद्दी पर बैठकर परमात्मा का स्मरण करके पैसे का हिसाब लगाने के लिए आवश्यक सामान वाली चिट्ठी खोली तो वह चिठ्ठी को एकटक देखते ही रह गए। एक बार तो उनका मन भटक गया। उन्हें अपनी आँखों के सामने तारे चमकते हुए नज़र आए किन्तु शीघ्र ही उन्होंने अपनी तंत्रिकाओं पर नियंत्रण पा लिया। आटे-दाल-चावल आदि के बाद पत्नी ने लिखा था, *"बेटी का विवाह 20 तारीख़ को है, उसके दहेज का सामान।"* कुछ देर सोचते रहे फिर बाकी चीजों की क़ीमत लिखने के बाद दहेज के सामने लिखा, '' *यह काम परमात्मा का है, परमात्मा जाने।*''

एक-दो रोगी आए थे। उन्हें वैद्यजी दवाई दे रहे थे। इसी दौरान एक बड़ी सी कार उनके दवाखाने के सामने आकर रुकी। वैद्यजी ने कोई खास तवज्जो नहीं दी क्योंकि कई कारों वाले उनके पास आते रहते थे। दोनों मरीज दवाई लेकर चले गए। वह सूटेड-बूटेड साहब कार से बाहर निकले और नमस्ते करके बेंच पर बैठ गए। वैद्यजी ने कहा कि अगर आपको अपने लिए दवा लेनी है तो इधर स्टूल पर आएँ ताकि आपकी नाड़ी देख लूँ और अगर किसी रोगी की दवाई लेकर जाना है तो बीमारी की स्थिति का वर्णन करें।

वह साहब कहने लगे "वैद्यजी! आपने मुझे पहचाना नहीं। मेरा नाम कृष्णलाल है लेकिन आप मुझे पहचान भी कैसे सकते हैं? क्योंकि मैं 15-16 साल बाद आपके दवाखाने पर आया हूँ। आप को पिछली मुलाकात का हाल सुनाता हूँ, फिर आपको सारी बात याद आ जाएगी। जब मैं पहली बार यहाँ आया था तो मैं खुद नहीं आया था अपितु ईश्वर मुझे आप के पास ले आया था क्योंकि ईश्वर ने मुझ पर कृपा की थी और वह मेरा घर आबाद करना चाहता था। हुआ इस तरह था कि मैं कार से अपने पैतृक घर जा रहा था। बिल्कुल आपके दवाखाने के सामने हमारी कार पंक्चर हो गई। ड्राईवर कार का पहिया उतार कर पंक्चर लगवाने चला गया। आपने देखा कि गर्मी में मैं कार के पास खड़ा था तो आप मेरे पास आए और दवाखाने की ओर इशारा किया और कहा कि इधर आकर कुर्सी पर बैठ जाएँ। अंधा क्या चाहे दो आँखें और कुर्सी पर आकर बैठ गया। ड्राइवर ने कुछ ज्यादा ही देर लगा दी थी।

एक छोटी-सी बच्ची भी यहाँ आपकी मेज़ के पास खड़ी थी और बार-बार कह रही थी, '' चलो न बाबा, मुझे भूख लगी है। आप उससे कह रहे थे कि बेटी थोड़ा धीरज धरो, चलते हैं। मैं यह सोच कर कि इतनी देर से आप के पास बैठा था और मेरे ही कारण आप खाना खाने भी नहीं जा रहे थे। मुझे कोई दवाई खरीद लेनी चाहिए ताकि आप मेरे बैठने का भार महसूस न करें। मैंने कहा वैद्यजी मैं पिछले 5-6 साल से इंग्लैंड में रहकर कारोबार कर रहा हूँ। इंग्लैंड जाने से पहले मेरी शादी हो गई थी लेकिन अब तक बच्चे के सुख से वंचित हूँ। यहाँ भी इलाज कराया और वहाँ इंग्लैंड में भी लेकिन किस्मत ने निराशा के सिवा और कुछ नहीं दिया।"

आपने कहा था, "मेरे भाई! भगवान से निराश न होओ। याद रखो कि उसके कोष में किसी चीज़ की कोई कमी नहीं है। आस-औलाद, धन-इज्जत, सुख-दुःख, जीवन-मृत्यु सब कुछ उसी के हाथ में है। यह किसी वैद्य या डॉक्टर के हाथ में नहीं होता और न ही किसी दवा में होता है। जो कुछ होना होता है वह सब भगवान के आदेश से होता है। औलाद देनी है तो उसी ने देनी है। मुझे याद है आप बातें करते जा रहे थे और साथ-साथ पुड़िया भी बनाते जा रहे थे। सभी दवा आपने दो भागों में विभाजित कर दो अलग-अलग लिफ़ाफ़ों में डाली थीं और फिर मुझसे पूछकर आप ने एक लिफ़ाफ़े पर मेरा और दूसरे पर मेरी पत्नी का नाम लिखकर दवा उपयोग करने का तरीका बताया था।

मैंने तब बेदिली से वह दवाई ले ली थी क्योंकि मैं सिर्फ कुछ पैसे आप को देना चाहता था। लेकिन जब दवा लेने के बाद मैंने पैसे पूछे तो आपने कहा था, बस ठीक है। मैंने जोर डाला, तो आपने कहा कि आज का खाता बंद हो गया है। मैंने कहा मुझे आपकी बात समझ नहीं आई। इसी दौरान वहां एक और आदमी आया उसने हमारी चर्चा सुनकर मुझे बताया कि खाता बंद होने का मतलब यह है कि आज के घरेलू खर्च के लिए जितनी राशि वैद्यजी ने भगवान से माँगी थी वह ईश्वर ने उन्हें दे दी है। अधिक पैसे वे नहीं ले सकते।

मैं कुछ हैरान हुआ और कुछ दिल में लज्जित भी कि मेरे विचार कितने निम्न थे और यह सरलचित्त वैद्य कितना महान है। मैंने जब घर जा कर पत्नी को औषधि दिखाई और सारी बात बताई तो उसके मुँह से निकला वो इंसान नहीं कोई देवता है और उसकी दी हुई दवा ही हमारे मन की मुराद पूरी करने का कारण बनेंगी। आज मेरे घर में दो फूल खिले हुए हैं। हम दोनों पति-पत्नी हर समय आपके लिए प्रार्थना करते रहते हैं। इतने साल तक कारोबार ने फ़ुरसत ही न दी कि स्वयं आकर आपसे धन्यवाद के दो शब्द ही कह जाता। इतने बरसों बाद आज भारत आया हूँ और कार केवल यहीं रोकी है।

वैद्यजी हमारा सारा परिवार इंग्लैंड में सेटल हो चुका है। केवल मेरी एक विधवा बहन अपनी बेटी के साथ भारत में रहती है। हमारी भान्जी की शादी इस महीने की 21 तारीख को होनी है। न जाने क्यों जब-जब मैं अपनी भान्जी के भात के लिए कोई सामान खरीदता था तो मेरी आँखों के सामने आपकी वह छोटी-सी बेटी भी आ जाती थी और हर सामान मैं दोहरा खरीद लेता था। मैं आपके विचारों को जानता था कि संभवतः आप वह सामान न लें किन्तु मुझे लगता था कि मेरी अपनी सगी भान्जी के साथ जो चेहरा मुझे बार-बार दिख रहा है वह भी मेरी भान्जी ही है। मुझे लगता था कि ईश्वर ने इस भान्जी के विवाह में भी मुझे भात भरने की ज़िम्मेदारी दी है।

वैद्यजी की आँखें आश्चर्य से खुली की खुली रह गईं और बहुत धीमी आवाज़ में बोले, '' कृष्णलाल जी, आप जो कुछ कह रहे हैं मुझे समझ नहीं आ रहा कि ईश्वर की यह क्या माया है। आप मेरी श्रीमती के हाथ की लिखी हुई यह चिठ्ठी देखिये।" और वैद्यजी ने चिट्ठी खोलकर कृष्णलाल जी को पकड़ा दी। वहाँ उपस्थित सभी यह देखकर हैरान रह गए कि ''दहेज का सामान'' के सामने लिखा हुआ था '' यह काम परमात्मा का है, परमात्मा जाने।''

काँपती-सी आवाज़ में वैद्यजी बोले, "कृष्णलाल जी, विश्वास कीजिये कि आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि पत्नी ने चिठ्ठी पर आवश्यकता लिखी हो और भगवान ने उसी दिन उसकी व्यवस्था न कर दी हो। आपकी बातें सुनकर तो लगता है कि भगवान को पता होता है कि किस दिन मेरी श्रीमती क्या लिखने वाली हैं अन्यथा आपसे इतने दिन पहले ही सामान ख़रीदना आरम्भ न करवा दिया होता परमात्मा ने। वाह भगवान वाह! तू महान है तू दयावान है। मैं हैरान हूँ कि वह कैसे अपने रंग दिखाता है।"

वैद्यजी ने आगे कहा,सँभाला है, एक ही पाठ पढ़ा है कि सुबह परमात्मा का आभार करो, शाम को अच्छा दिन गुज़रने का आभार करो, खाते समय उसका आभार करो, सोते समय उसका आभार करो।

Wednesday, September 25, 2019

हृदय परिवर्तन

एक राजा को राज भोगते काफी समय हो गया था । बाल भी सफ़ेद होने लगे थे । एक दिन उसने अपने दरबार में उत्सव रखा और अपने गुरुदेव एवं मित्र देश के राजाओं को भी सादर आमन्त्रित किया । उत्सव को रोचक बनाने के लिए राज्य की सुप्रसिद्ध नर्तकी को भी बुलाया गया ।
  राजा ने कुछ स्वर्ण मुद्रायें अपने गुरु जी को भी दीं, ताकि नर्तकी के अच्छे गीत व नृत्य पर वे उसे पुरस्कृत कर सकें । सारी रात नृत्य चलता रहा । ब्रह्म मुहूर्त की बेला आयी । नर्तकी ने देखा कि मेरा तबले वाला ऊँघ रहा है, उसको जगाने के लिए नर्तकी ने एक दोहा पढ़ा
बहु बीती, थोड़ी रही, पल पल गयी बिताई । एक पलक के कारने, ना कलंक लग जाए ।"
अब इस दोहे का अलग-अलग व्यक्तियों ने अपने अनुरुप अर्थ निकाला । तबले वाला सतर्क होकर बजाने लगा ।
 जब यह बात गुरु जी ने सुनी । गुरु जी ने सारी मोहरें उस नर्तकी के सामने फैंक दीं ।
 वही दोहा नर्तकी ने फिर पढ़ा तो राजा की लड़की ने अपना नवलखा हार नर्तकी को भेंट कर दिया ।
 उसने फिर वही दोहा दोहराया तो राजा के पुत्र युवराज ने अपना मुकट उतारकर नर्तकी को समर्पित कर दिया ।
 नर्तकी फिर वही दोहा दोहराने लगी तो राजा ने कहा - "बस कर, एक दोहे से तुमने वेश्या होकर सबको लूट लिया है ।"
जब यह बात राजा के गुरु ने सुनी तो गुरु के नेत्रों में आँसू आ गए और गुरु जी कहने लगे - "राजा  इसको तू वेश्या मत कह, ये अब मेरी गुरु बन गयी है । इसने मेरी आँखें खोल दी हैं । यह कह रही है कि मैं सारी उम्र जंगलों में भक्ति करता रहा और आखिरी समय में नर्तकी का मुज़रा देखकर अपनी साधना नष्ट करने यहाँ चला आया हूँ, भाई  मैं तो चला ।" यह कहकर गुरु जी तो अपना कमण्डल उठाकर जंगल की ओर चल पड़े ।
राजा की लड़की ने कहा - "पिता जी  मैं जवान हो गयी हूँ । आप आँखें बन्द किए बैठे हैं, मेरी शादी नहीं कर रहे थे और आज रात मैंने आपके महावत के साथ भागकर अपना जीवन बर्बाद कर लेना था । लेकिन इस नर्तकी ने मुझे सुमति दी है कि जल्दबाजी मत कर कभी तो तेरी शादी होगी ही । क्यों अपने पिता को कलंकित करने पर तुली है ?"
युवराज ने कहा - "पिता जी आप वृद्ध हो चले हैं, फिर भी मुझे राज नहीं दे रहे थे । मैंने आज रात ही आपके सिपाहियों से मिलकर आपका कत्ल करवा देना था । लेकिन इस नर्तकी ने समझाया कि पगले आज नहीं तो कल आखिर राज तो तुम्हें ही मिलना है, क्यों अपने पिता के खून का कलंक अपने सिर पर लेता है । धैर्य रख ।"
जब ये सब बातें राजा ने सुनी तो राजा को भी आत्म ज्ञान हो गया । राजा के मन में वैराग्य आ गया । राजा ने तुरन्त फैंसला लिया - "क्यों न मैं अभी युवराज का राजतिलक कर दूँ ।" फिर क्या था, उसी समय राजा ने युवराज का राजतिलक किया और अपनी पुत्री को कहा - "पुत्री दरबार में एक से एक राजकुमार आये हुए हैं । तुम अपनी इच्छा से किसी भी राजकुमार के गले में वरमाला डालकर पति रुप में चुन सकती हो ।" राजकुमारी ने ऐसा ही किया और राजा सब त्याग कर जंगल में गुरु की शरण में चला गया ।
 यह सब देखकर नर्तकी ने सोचा - "मेरे एक दोहे से इतने लोग सुधर गए, लेकिन मैं क्यूँ नहीं सुधर पायी ?" उसी समय नर्तकी में भी वैराग्य आ गया । उसने उसी समय निर्णय लिया कि आज से मैं अपना बुरा धंधा बन्द करती हूँ और कहा कि "हे प्रभु ! मेरे पापों से मुझे क्षमा करना । बस, आज से मैं सिर्फ तेरा नाम सुमिरन करुँगी ।"
 समझ आने की बात है, दुनिया बदलते देर नहीं लगती । एक दोहे की दो लाईनों से भी हृदय परिवर्तन हो सकता है । बस, केवल थोड़ा धैर्य रखकर चिन्तन करने की आवश्यकता है ।

परशंसा से पिंघलना मत, आलोचना से उबलना मत, नि:स्वार्थ भाव से कर्म करते रहो, क्योंकि इस धरा का, इस धरा पर, सब धरा रह जायेगा |

वाह मोबाइल, आह मोबाइल


आज मोबाइल फोन के बिना हम अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी की कल्पना भी नहीं कर सकते। उसका कारण है हमारी आधुनिक ज़रूरतों के हिसाब से इसके बेतहाशा फायदे और उपयोग। वो ज़माना चला गया, जब मोबाइल फोन केवल कॉलिंग के लिए होता था। आज यदि हमारे पास इंटरनेट कनेक्शन के साथ स्मॉर्ट मोबाइल फोन है तो यह समझ लीजिए कि हम अपने 90 से 95 प्रतिशत काम घर बैठे कर सकते हैं। जैसे: शॉपिंग, बैंकिंग, सभी तरह के बिल पे करना, ऑन लाइन बिजनेस, वीडियो कान्फ्रेन्सिंग, पंसदीदा मूवी देखना आदि। साथ ही, संकट की स्थिति में महिलाओं एवं बच्चों के लिए यह बहुत उपयोगी है। वास्तव में, आज स्मॉर्ट मोबाइल फोन (विद इंटरनेट) हमारे लिए लाइफ-लाइन बन गया है, जिसके फायदों की फेहरिस्त बहुत लंबी है।

कहते हैं ना कि हर चीज़ के दो पहलू होते हैं। यानि अच्छाई के साथ बुराई और उजाले के साथ अंधेरा। उसी तरह मोबाइल फोन के नकारात्मक पहलुओं की फेहरिस्त भी कोई छोटी नहीं है, लेकिन यहां हम केवल इस हरफनमौला मोबाइल फोन से, खासकर छोटे बच्चों को होने वाले नुकसान व खतरों की ही बात करेंगे। जिनमें सबसे ऊपर है, इससे निकलने वाला रेडिएशन। जी हां, एक रिसर्च के अनुसार, सेलफोन से निकलने वाले रेडिएशन से कैंसर तक होने की संभावना भी रहती है (हालांकि अभी भी इस पर रिसर्च जारी हैं)। आज लगभग एक साल का शिशु भी मोबाइल से पहले तो खिलौना समझकर खेलता है, लेकिन धीरे-धीरे उस छोटे बच्चे को मोबाइल की ऐसी लत पड़ती है कि वह ज़िंदगी भर इसे नहीं छोड़ पाता। छोटे बच्चों के शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बहुत कम होती है इसीलिए रेडिएशन सहित मोबाइल फोन के जितने भी नुकसान हैं, उनसे बच्चों को सुरक्षित रख पाना, बड़े व्यक्तियों की तुलना में ज़्यादा मुश्किल हो जाता है। बच्चे यदि दिन में बहुत थोड़े समय के लिए  यूज़ कर लेते हैं तो फिर भी ठीक है, लेकिन यदि उन्हें लंबे समय तक मोबाइल यूज़ करने की लत पड़ चुकी है तो इस स्थिति को गंभीर माना जाना चाहिए।

यह देखा जा रहा है कि मोबाइल फोन का अधिक यूज़ करने से छोटे बच्चों की आंखे खराब होना, पढ़ाई में मन न लगना तथा शारीरिक विकास प्रभावित होने से लेकर एंज़ाइटी, हाइपरएक्टीविटी व डिप्रेशन जैसी बड़ी बीमारियां तक पनप रही हैं। मोबाइल की लत में पड़कर बच्चे खाना-पीना तक भूल जाते हैं। उनमें चिड़चिड़ापन एवं सिरदर्द रहने की भी शिकायतें मिलती हैं। हाल ही में, साढ़े तीन साल से लेकर आठ साल तक के 9 बच्चों को मोबाइल में वीडियो गेम खेलने एवं सेल्फी लेने के दौरान डेंटल इंज़री का शिकार होने पर अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा।

मनोचिकित्सकों के अनुसार, जिन बच्चों को मोबाइल फोन की लत पड़ चुकी है, उनके लिए यह जानलेवा तक भी हो सकता है। मोबाइल के कारण, बच्चों का बचपन से कनेक्शन  कट रहा है और इंटरनेट-एडिक्शन के परिणामस्वरूप वे ‘समय से पहले’ बड़े हो रहे हैं। उनमें हिंसा की प्रवृत्ति भी बढ़ रही है, जिसकी अति होने पर वे जानलेवा कदम तक उठा सकते हैं। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि चीन में ऑनलाईन गेमिंग के दौरान हार से बचने के लिए बच्चे डायपर्स का प्रयोग करते हैं, ताकि बीच में टॉयलेट न जाना पड़े। ऐसे इंटरनेट-एडिक्टिड बच्चों को सुधारने के लिए वहां उनको विशेष कैम्पों में भी रखा जा रहा है। भविष्य में कहीं यह स्थिति हमारे देश  में तो नहीं आने वाली ?

यह स्थिति  निश्चित रूप से हम सभी के लिए चिंता का विषय  ज़रूर है, लेकिन हमें घबराने की बिल्कुल आवश्यकता  नहीं है। क्योंकि यदि बच्चों को मोबाइल फोन के खतरों की जानकारी देते हुए उन्हें कुछ सावधानियों एवं सख्ती के साथ  निश्चित अवधि हेतु मोबाइल फोन का यूज़ करने के लिए आगाह किया जाए तो उन्हें मोबाइल फोन के खतरों से काफी हद तक बचाया जा सकता है। सबसे पहले, छोटे बच्चों के हाथों में कम से कम समय के लिए मोबाइल फोन दिया जाए तथा उनके मनोरंजन के लिए टी.वी आदि अन्य विकल्पों का सहारा लिया जाए। बच्चों को एक बार में 30 मिनट से अधिक समय तक मोबाइल यूज़ नहीं करने देना चाहिए। बच्चे मोबाइल फोन को कान से लगाकर न सुनें, इसके लिए हैंड्स-फ्री का प्रयोग करना चाहिए। शिशुओं/बच्चों को कठोर सुपरविज़न के तहत ही मोबाइल फोन का यूज़ करने देना चाहिए। छोटे बच्चों को इंटरनेट वाले स्मॉर्ट मोबाइल फोन देने से बचना चाहिए, यदि संभव हो तो उन्हें साधारण मोबाइल फोन दिए जाएं। उनके मोबाइल फोन इस्तेमाल करने का टाइम कम से कम कर देना चाहिए। सोते समय मोबाइल फोन को ऑफ कर दें अथवा बिस्तर से सदैव दूर ही रखें।

अतः हमें मानना होगा कि यदि मोबाइल फोन का सही ढंग से इस्तेमाल किया जाए तो यह किसी वरदान से कम नहीं, लेकिन यदि इसका अत्यधिक इस्तेमाल किया जाए तो यह बीमारियों का घर भी है। समझदारी इसमें है कि हम मोबाइल फोन के फायदों का आनंद लेते हुए इसके साइड-इफैक्ट्स से स्वयं भी बचें

Tuesday, September 24, 2019

माँ और बेटी

एक सौदागर राजा के महल में दो गायों को लेकर आया - दोनों ही स्वस्थ, सुंदर व दिखने में लगभग एक जैसी थीं।
सौदागर ने राजा से कहा "महाराज - ये गायें माँ - बेटी हैं परन्तु मुझे यह नहीं पता कि माँ कौन है व बेटी कौन - क्योंकि दोनों में खास अंतर नहीं है।
मैंने अनेक जगह पर लोगों से यह पूछा किंतु कोई भी इन दोनों में माँ - बेटी की पहचान नहीं कर पाया
बाद में मुझे किसी ने यह कहा कि आपका बुजुर्ग मंत्री बेहद कुशाग्र बुद्धि का है और यहाँ पर मुझे अवश्य मेरे प्रश्न का उत्तर मिल जाएगा...
इसलिए मैं यहाँ पर चला आया - कृपया मेरी समस्या का समाधान किया जाए।"
यह सुनकर सभी दरबारी मंत्री की ओर देखने लगे मंत्री अपने स्थान से उठकर गायों की तरफ गया।
उसने दोनों का बारीकी से निरीक्षण किया किंतु वह भी नहीं पहचान पाया कि वास्तव में कौन मां है और कौन बेटी ?
अब मंत्री बड़ी दुविधा में फंस गया, उसने सौदागर से एक दिन की मोहलत मांगी।
घर आने पर वह बेहद परेशान रहा - उसकी पत्नी इस बात को समझ गई। उसने जब मंत्री से परेशानी का कारण पूछा तो उसने सौदागर की बात बता दी।
यह सुनकर पत्नी  हुए बोली 'अरे ! बस इतनी सी बात है - यह तो मैं भी बता सकती हूँ ।'
अगले दिन मंत्री अपनी पत्नी को वहाँ ले गया जहाँ गायें बंधी थीं।
मंत्री की पत्नी ने दोनों गायों के आगे अच्छा भोजन रखा - कुछ ही देर बाद उसने माँ व बेटी में अंतर बता दिया - लोग चकित रह गए।
मंत्री की पत्नी बोली "पहली गाय जल्दी - जल्दी खाने के बाद दूसरी गाय के भोजन में मुंह मारने लगी और दूसरी वाली ने पहली वाली के लिए अपना भोजन छोड़ दिया, ऐसा केवल एक मां ही कर सकती है - यानि दूसरी वाली माँ है।
माँ ही बच्चे के लिए भूखी रह सकती है - माँ में ही त्याग, करुणा, वात्सल्य, ममत्व के गुण विद्यमान होते है......
दोस्तों इस दुनियाँ मे माँ से महान कोई नही है....
माँ के चरणों मे भगवान कॊ भी झुकना पड़ता है..
माँ ममता का सागर नही..पर महासागर है...

सफल जीवन

एक बेटे ने पिता से पूछा-
पापा.. ये 'सफल जीवन' क्या होता है ?
पिता, बेटे को पतंग  उड़ाने ले गए। 
बेटा पिता को ध्यान से पतंग उड़ाते देख रहा था.
थोड़ी देर बाद बेटा बोला-
पापा.. ये धागे की वजह से पतंग अपनी आजादी से और ऊपर की ओर नहीं जा पा रही है, क्या हम इसे तोड़ दें ? ये और ऊपर चली जाएगी|
पिता ने धागा तोड़ दिया ..
पतंग थोड़ा सा और ऊपर गई और उसके बाद लहरा कर नीचे आयी और दूर अनजान जगह पर जा कर गिर गई...
तब पिता ने बेटे को जीवन का दर्शन समझाया...
बेटा..  'जिंदगी में हम जिस ऊंचाई पर हैं..
हमें अक्सर लगता की कुछ चीजें, जिनसे हम बंधे हैं वे हमें और ऊपर जाने से रोक रही हैं; जैसे :
            -घर-
         -परिवार-
       -अनुशासन-
      -माता-पिता-
       -गुरू-और-
          -समाज-
और हम उनसे आजाद होना चाहते हैं...
वास्तव में यही वो धागे होते हैं - जो हमें उस ऊंचाई पर बना के रखते हैं..
'इन धागों के बिना हम एक बार तो ऊपर जायेंगे परन्तु बाद में हमारा वो ही हश्र होगा, जो बिन धागे की पतंग का हुआ...'
"अतः जीवन में यदि तुम ऊंचाइयों पर बने रहना चाहते हो तो, कभी भी इन धागों से रिश्ता मत तोड़ना.."
धागे और पतंग जैसे जुड़ाव
के सफल संतुलन से मिली हुई ऊंचाई को ही 'सफल जीवन कहते हैं.."

Monday, September 23, 2019

महाभारत के युद्ध में भोजन प्रबंधन

 
महाभारत को हम सही मायने में विश्व का प्रथम विश्वयुद्ध कह सकते हैं क्योंकि शायद ही कोई ऐसा राज्य था जिसने इस युद्ध में भाग नहीं लिया।
आर्यावर्त के समस्त राजा या तो कौरव अथवा पांडव के पक्ष में खड़े दिख रहे थे। श्रीबलराम और रुक्मी ये दो ही व्यक्ति ऐसे थे जिन्होंने इस युद्ध में भाग नहीं लिया।
कम से कम हम सभी तो यही जानते हैं। किन्तु एक और राज्य ऐसा था जो युद्ध क्षेत्र में होते हुए भी युद्ध से विरत था। वो था दक्षिण के "उडुपी" का राज्य।
जब उडुपी के राजा अपनी सेना सहित कुरुक्षेत्र पहुँचे तो कौरव और पांडव दोनों उन्हें अपनी ओर मिलाने का प्रयत्न करने लगे।
उडुपी के राजा अत्यंत दूरदर्शी थे। उन्होंने श्रीकृष्ण से पूछा - "हे माधव ! दोनों ओर से जिसे भी देखो युद्ध के लिए लालायित दिखता है किन्तु क्या किसी ने सोचा है कि दोनों ओर से उपस्थित इतनी विशाल सेना के भोजन का प्रबंध कैसे होगा ?
इस पर श्रीकृष्ण ने कहा - महाराज ! आपने बिलकुल उचित सोचा है। आपके इस बात को छेड़ने पर मुझे प्रतीत होता है कि आपके पास इसकी कोई योजना है। अगर ऐसा है तो कृपया बताएं।
इसपर उडुपी नरेश ने कहा - "हे वासुदेव ! ये सत्य है। भाइयों के बीच हो रहे इस युद्ध को मैं उचित नहीं मानता इसी कारण इस युद्ध में भाग लेने की इच्छा मुझे नहीं है।
किन्तु ये युद्ध अब टाला नहीं जा सकता इसी कारण मेरी ये इच्छा है कि मैं अपनी पूरी सेना के साथ यहाँ उपस्थित समस्त सेना के भोजन का प्रबंध करूँ।
इस पर श्रीकृष्ण ने हर्षित होते हुए कहा - "महाराज ! आपका विचार अति उत्तम है। इस युद्ध में लगभग ५०००००० (५० लाख) योद्धा भाग लेंगे और अगर आप जैसे कुशल राजा उनके भोजन के प्रबंधन को देखेगा तो हम उस ओर से निश्चिंत ही रहेंगे।
वैसे भी मुझे पता है कि सागर जितनी इस विशाल सेना के भोजन प्रबंधन करना आपके और भीमसेन के अतिरिक्त और किसी के लिए भी संभव नहीं है।
भीमसेन इस युद्ध से विरत हो नहीं सकते अतः मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप अपनी सेना सहित दोनों ओर की सेना के भोजन का भार संभालिये।" इस प्रकार उडुपी के महाराज ने सेना के भोजन का प्रभार संभाला।
पहले दिन उन्होंने उपस्थित सभी योद्धाओं के लिए भोजन का प्रबंध किया। उनकी कुशलता ऐसी थी कि दिन के अंत तक एक दाना अन्न का भी बर्बाद नहीं होता था।
जैसे-जैसे दिन बीतते गए योद्धाओं की संख्या भी कम होती गयी। दोनों ओर के योद्धा ये देख कर आश्चर्यचकित रह जाते थे कि हर दिन के अंत तक उडुपी नरेश केवल उतने ही लोगों का भोजन बनवाते थे जितने वास्तव में उपस्थित रहते थे।
किसी को समझ नहीं आ रहा था कि आखिर उन्हें ये कैसे पता चल जाता है कि आज कितने योद्धा मृत्यु को प्राप्त होंगे ताकि उस आधार पर वे भोजन की व्यवस्था करवा सकें।
इतने विशाल सेना के भोजन का प्रबंध करना अपने आप में ही एक आश्चर्य था और उसपर भी इस प्रकार कि अन्न का एक दाना भी बर्बाद ना हो, ये तो किसी चमत्कार से कम नहीं था।
अंततः युद्ध समाप्त हुआ और पांडवों की जीत हुई। अपने राज्याभिषेक के दिन आख़िरकार युधिष्ठिर से रहा नहीं गया और उन्होंने उडुपी नरेश से पूछ ही लिया
हे महाराज ! समस्त देशों के राजा हमारी प्रशंसा कर रहे हैं कि किस प्रकार हमने कम सेना होते हुए भी उस सेना को परास्त कर दिया जिसका नेतृत्व पितामह भीष्म, गुरु द्रोण और हमारे ज्येष्ठ भ्राता कर्ण जैसे महारथी कर रहे थे।
किन्तु मुझे लगता है कि हम सब से अधिक प्रशंसा के पात्र आप है जिन्होंने ना केवल इतनी विशाल सेना के लिए भोजन का प्रबंध किया अपितु ऐसा प्रबंधन किया कि एक दाना भी अन्न का व्यर्थ ना हो पाया। मैं आपसे इस कुशलता का रहस्य जानना चाहता हूँ।
इसपर उडुपी नरेश ने हँसते हुए कहा - "सम्राट ! आपने जो इस युद्ध में विजय पायी है उसका श्रेय किसे देंगे ?
इसपर युधिष्ठिर ने कहा "श्रीकृष्ण के अतिरिक्त इसका श्रेय और किसे जा सकता है ? अगर वे ना होते तो कौरव सेना को परास्त करना असंभव था।
तब उडुपी नरेश ने कहा "हे महाराज ! आप जिसे मेरा चमत्कार कह रहे हैं वो भी श्रीकृष्ण का ही प्रताप है।" ऐसा सुन कर वहाँ उपस्थित सभी लोग आश्चर्यचकित हो गए।
तब उडुपी नरेश ने इस रहस्य पर से पर्दा उठाया और कहा - "हे महाराज! श्रीकृष्ण प्रतिदिन रात्रि में मूँगफली खाते थे।
मैं प्रतिदिन उनके शिविर में गिन कर मूँगफली रखता था और उनके खाने के पश्चात गिन कर देखता था कि उन्होंने कितनी मूंगफली खायी है।
वे जितनी मूँगफली खाते थे उससे ठीक १००० गुणा सैनिक अगले दिन युद्ध में मारे जाते थे। अर्थात अगर वे ५० मूँगफली खाते थे तो मैं समझ जाता था कि अगले दिन ५०००० योद्धा युद्ध में मारे जाएँगे।
उसी अनुपात में मैं अगले दिन भोजन कम बनाता था। यही कारण था कि कभी भी भोजन व्यर्थ नहीं हुआ।" श्रीकृष्ण के इस चमत्कार को सुनकर सभी उनके आगे नतमस्तक हो गए।
ये कथा महाभारत की सबसे दुर्लभ कथाओं में से एक है। कर्नाटक के उडुपी जिले में स्थित कृष्ण मठ में ये कथा हमेशा सुनाई जाती है।
ऐसा माना जाता है कि इस मठ की स्थापना उडुपी के सम्राट द्वारा ही करवाई गयी थी जिसे बाद में ‌श्री माधवाचार्य जी ने आगे बढ़ाया।

छटाई रिश्तों की

   लड़का और लड़की की शादी तो हो चुकी थी परंतु दोनों में बन नहीं रही थी। पंडित ने कुंडली के 36 गुण मिला कर शादी का नारियल फुड़वाया था, पर शादी के साल भर बाद ही चिकचिक शुरू हो गई थी।
     पत्नी अपने ससुराल वालों के उन अवगुणों का भी पोस्टमार्टम कर लेती जिन्हें कोई और देख ही नहीं पाता था। लगता था कि अब तलाक हुआ कि हुआ। पूरा घर तबाह होता नज़र आ रहा था।
सबने कोशिश कर ली कि किसी तरह यह रिश्ता बच जाए। दो परिवार तबाही के दंश से बच जाएं,परंतु सारी कोशिशें व्यर्थ थीं। जो भी घर आता, पत्नी अपने पति की ढेरों खामियां गिनाती और कहती कि उसके साथ रहना असम्भव है। वो कहती कि इसके साथ तो एक मिनट भी नहीं रहा जा सकता। दो बच्चे हो चुके हैं और बच्चों की खातिर किसी तरह ज़िंदगी कट रही है।
     उनके कटु रिश्तों की यह कहानी पूरे मुहल्ले में चर्चा का विषय बनी हुई थी। ऐसे में एक दिन एक आदमी सब्जी बेचता हुआ उनके घर आ पहुंचा। उस दिन घर में सब्जी नहीं थी।
 ऐ सब्जी वाले, तुम्हारे पास क्या-क्या सब्जियां हैं?
बहन, मेरे पास आलू, बैंगन, टमाटर, भिंडी और गोभी है।
जरा दिखाओ तो सब्जियां कैसी हैं?
     सब्जी वाले ने सब्जी की टोकरी नीचे रखी। महिला टमाटर देखने लगी। सब्जी वाले ने कहा, बहन आप टमाटर मत लो। इस टोकरी में जो टमाटर हैं, उनमें दो चार खराब हो चुके हैं। आप आलू ले लो।
     अरे, चाहिए टमाटर तो आलू क्यों ले लूं? तुम टमाटर इधर लाओ, मैं उनमें से जो ठीक हैं उन्हें छांट लूंगी।
     सब्जी वाले ने टमाटर आगे कर दिए। महिला खराब टमाटरों को किनारे करने लगी और अच्छे टमाटर उठाने लगी। दो किलो टमाटर हो गया। फिर उसने भिंडी उठाई। सब्जी वाला फिर बोला, बहन भिंडी भी आपके काम की नहीं। इसमें भी कुछ भिंडी खराब हैं। आप आलू ले लीजिए। वो ठीक हैं।
     बड़े कमाल के सब्जी वाले हो तुम। तुम बार-बार कह रहे हो आलू ले लो, आलू ले लो। भिंडी, टमाटर किसके लिए हैं? मेरे लिए नहीं है क्या?
     मैं सारी सब्जियां बेचता हूं। पर बहन, आपको टमाटर और भिंडी ही चाहिए। मुझे पता है कि मेरी टोकरी में कुछ टमाटर और कुछ भिंडी खराब हैं, इसीलिए मैंने आपको मना किया और कोई बात नहीं।
     पर मैं तो अपने हिसाब से अच्छे टमाटर और भिंडियां छांट सकती हूं। जो ख़राब हैं, उन्हें छोड़ दूंगी। मुझे अच्छी सब्जियों की पहचान है।
     बहुत खूब बहन। आप अच्छे टमाटर चुनना जानती हैं। अच्छी भिंडियां चुनना भी जानती हैं। आपने ख़राब टमाटरों को किनारे कर दिया। ख़राब भिंडियां भी छांट कर हटा दीं परंतु आप अपने रिश्तों में एक अच्छाई नहीं ढूंढ पा रहीं। आपको उनमें सिर्फ बुराइयां ही बुराइयां नज़र आती हैं। बहन जैसे आपने टमाटर छांट लिए, भिंडी छांट ली, वैसे ही रिश्तों से अच्छाई को छांटना सीखिए। जैसे मेरी टोकरी में कुछ टमाटर ख़राब थे, कुछ भिंडी खराब थीं पर आपने अपने काम लायक छांट लिए वैसे ही हर आदमी में कुछ न कुछ अच्छाई होती है। उन्हें छांटना आता, तो आज मुहल्ले भर में आपके ख़राब रिश्तों की चर्चा न चल रही होती।”
     सब्जी वाला तो चला गया.. पर उस दिन महिला ने रिश्तों को परखने की विद्या सीख ली थी। उस शाम घर में बहुत अच्छी सब्जी बनी। सबने खाई और कहा, बहू हो तो ऐसी हो।
     रिश्तों को बनाने और बिगाडने के ज़िम्मेदार हम खुद हैं इसीलिए रिश्तो को समझो.....!

Sunday, September 22, 2019

समझदारी



साहब, दरवाजे पर एक औरत खड़ी है, जो आप से मिलना चाहती है,’’ दीपू ने अरुण से कहा.
‘‘कौन है?’’ अरुण ने पूछा.
‘‘मैं नहीं जानता साहब, लेकिन देखने में भली लगती है,’’ दीपू ने जवाब दिया.
‘‘बुला लो उसे. देखें, किस काम से आई है?’’ अरुण ने कहा.
दीपू उस औरत को अंदर बुला लाया.
अरुण उसे देखते ही हैरत से बोला, ‘‘अरे संगीता, तुम हो. कहो, कैसे आना हुआ? आओ बैठो.’’
संगीता सोफे पर बैठते हुए बोली, ‘‘बहुत मुश्किल से तुम्हें ढूंढ़ पाई हूं. एक तुम हो जो इतने दिनों से इस शहर में हो, पर मेरी याद नहीं आई.
‘‘तुम ने कहा था कि जब कानपुर आओगे, तो मुझ से मिलोगे. मगर तुम तो बड़े साहब हो. इन सब बातों के लिए तुम्हारे पास फुरसत ही कहां है?’’
‘‘संगीता, ऐसी बात नहीं है. दरअसल, मैं हाल ही में कानपुर आया हूं. औफिस के काम से फुरसत ही नहीं मिलती. अभी तक तो मैं ने इस शहर को ठीक से देखा भी नहीं है.
‘‘अब छोड़ो इन बातों को. पहले यह बताओ कि मेरे यहां आने की जानकारी तुम्हें कैसे मिली?’’ अरुण ने संगीता से पूछा.
‘‘मेरे पति संतोष से, जो तुम्हारे औफिस में ही काम करते हैं,’’ संगीता ने चहकते हुए बताया.
‘‘तो संतोषजी हैं तुम्हारे पति. मैं तो उन्हें अच्छी तरह जानता हूं. वे मेरे औफिस के अच्छे वर्कर हैं,’’ अरुण ने कहा.
अरुण के औफिस जाने का समय हो चुका था, इसलिए संगीता जल्दी ही अपने घर आने की कह कर लौट गई.
औफिस के कामों से फुरसत पा कर अरुण आराम से बैठा था. उस के मन में अचानक संगीता की बातें आ गईं.

संगीता उस की दीदी की ननद की लड़की थी. उस की उम्र 18 साल की रही होगी. देखने में वह अच्छी थी. किसी तरह वह 10वीं पास कर चुकी थी. पढ़ाई से ज्यादा वह अपनेआप पर ध्यान देती थी.
संगीता दीदी के घर में ही रहती थी. दीदी की लंबी बीमारी के कारण अरुण को वहां तकरीबन एक महीने तक रुकना पड़ा. जीजाजी दिनभर औफिस में रहते थे. घर में दीदी की बूढ़ी सास थी. बुढ़ापे के कारण उन का शरीर तो कमजोर था, पर नजरें काफी पैनी थीं.
अरुण ऊपर के कमरे में रहता था. अरुण को समय पर नाश्ता व खाना देने के साथसाथ उस के ज्यादातर काम संगीता ही करती थी.
संगीता जब भी खाली रहती, तो ज्यादा समय अरुण के पास ही बिताने की कोशिश करती.
संगीता की बातों में कीमती गहने, साडि़यां, अच्छा घर व आधुनिक सामानों को पाने की ख्वाहिश रहती थी. उस के साथ बैठ कर बातें करना अरुण को अच्छा लगता था.
संगीता भी अरुण के करीब आती जा रही थी. वह मन ही मन अरुण को चाहने लगी थी. लेकिन दीदी की सास दोनों की हालत समझ गईं और एक दिन उन्होंने दीदी के सामने ही कहा, ‘अरुण, अभी तुम्हारी उम्र कैरियर बनाने की है. जज्बातों में बह कर अपनी जिंदगी से खेलना तुम्हारे लिए अच्छा नहीं है.’
दीदी की सास की बातें सुन कर अरुण को अपराधबोध का अहसास हुआ. वह कुछ दिनों बाद ही दीदी के घर से वापस आ गया. तब तक दीदी भी ठीक हो चुकी थीं.
एक साल बाद अरुण गजटेड अफसर बन गया. इस बीच संगीता की शादी तय हो गई थी. जीजाजी शादी का बुलावा देने घर आए थे.
लौटते समय वे शादी के कामों में हाथ बंटाने के लिए अरुण को साथ लेते गए. दीदी के घर में शादी की चहलपहल थी.
एक शाम अरुण घर के पास बाग में यों ही टहल रहा था, तभी अचानक संगीता आई और बोली, ‘अरुण, समय मिल जाए, तो कभी याद कर लेना.’
संगीता की शादी हो गई. वह ससुराल चली गई. अरुण ने भी शादी कर ली.
आज संगीता अरुण के घर आई, तो अरुण ने भी कभी संगीता के घर जाने का इरादा कर लिया. पर औफिस के कामों में बिजी रहने के कारण वह चाह कर भी संगीता के घर नहीं जा सका. मगर संगीता अरुण के घर अब रोज जाने लगी.
कभीकभी संगीता अरुण के साथ उस के लिए शौपिंग करने स्टोर में चली जाती. स्टोर का मालिक अरुण के साथ संगीता को भी खास दर्जा देता था.
एकाध बार तो ऐसा भी होता कि अरुण की गैरहाजिरी में संगीता स्टोर में जा कर अरुण व अपनी जरूरत की चीजें खरीद लाती, जिस का भुगतान अरुण बाद में कर देता.
अरुण संगीता के साथ काफी घुलमिल गया था. संगीता अरुण को खाली समय का अहसास नहीं होने देती थी.
एक दिन संगीता अरुण को साथ ले कर साड़ी की दुकान पर गई. अरुण की पसंद से उस ने 3 साडि़यां पैक कराईं.
काउंटर पर आ कर साड़ी का बिल ले कर अरुण को देती हुई चुपके से बोली, ‘‘अभी तुम भुगतान कर दो, बाद में मैं तुम्हें दे दूंगी.’’
अरुण ने बिल का भुगतान कर दिया और संगीता के साथ आ कर गाड़ी में बैठ गया.
गाड़ी थोड़ी दूर ही चली थी कि संगीता ने कहा, ‘‘जानते हो अरुण, संतोषजी के चाचा की लड़की की शादी है. मेरे पास शादी में पहनने के लिए कोई ढंग की साड़ी नहीं है, इसीलिए मुझे नई साडि़यां लेनी पड़ीं.
‘‘मेरी शादी में मां ने वही पुराने जमाने वाला हार दिया था, जो टूटा पड़ा है. शादी में पहनने के लिए मैं एक अच्छा सा हार लेना चाहती हूं, पर क्या करूं. पैसे की इतनी तंगी है कि चाह कर भी मैं कुछ नहीं कर पाती हूं. मैं चाहती थी कि तुम से पैसा उधार ले कर एक हार ले लूं. बाद में मैं तुम्हें पैसा लौटा दूंगी.’’
अरुण चुपचाप संगीता की बातें सुनता हुआ गाड़ी चलाए जा रहा था.
उसे चुप देख कर संगीता ने पूछा, ‘‘अरुण, तो क्या तुम चल रहे हो ज्वैलरी की दुकान में?’’
‘‘तुम कहती हो, तो चलते हैं,’’ न चाहते हुए भी अरुण ने कहा.
संगीता ने ज्वैलरी की दुकान में 15 हजार का हार पसंद किया.
अरुण ने हार की कीमत का चैक काट कर दुकानदार को दे दिया. फिर दोनों वापस आ गए.
अरुण को संगीता के साथ समय बिताने में एक अनोखा मजा मिलता था.
आज शाम को उस ने रोटरी क्लब जाने का मूड बनाया. वह जाने की तैयारी कर ही रहा था, तभी संगीता आ गई.
संगीता काफी सजीसंवरी थी. उस ने साड़ी से मैच करता हुआ ब्लाउज पहन रखा था. उस ने अपने लंबे बालों को काफी सलीके से सजाया था. उस के होंठों की लिपस्टिक व माथे पर लगी बिंदी ने उस के रूप को काफी निखार दिया था.
देखने से लगता था कि संगीता ने सजने में काफी समय लगाया था. उस के आते ही परफ्यूम की खुशबू ने अरुण को मदहोश कर दिया. वह कुछ पलों तक ठगा सा उसे देखता रहा.

तभी संगीता ने अरुण को फिल्म के 2 टिकट देते हुए कहा, ‘‘अरुण, तुम्हें आज मेरे साथ फिल्म देखने चलना होगा. इस में कोई बहाना नहीं चलेगा.’’
अरुण संगीता की बात को टाल न सका और वह संगीता के साथ फिल्म देखने चला गया.
फिल्म देखते हुए बीचबीच में संगीता अरुण से सट जाती, जिस से उस के उभरे अंग अरुण को छूने लगते.
फिल्म खत्म होने के बाद संगीता ने होटल में चल कर खाना खाने की इच्छा जाहिर की. अरुण मान गया.
खाना खा कर होटल से निकलते समय रात के डेढ़ बज रहे थे. अरुण ने संगीता को उस के घर छोड़ने की बात कही, तो संगीता ने उसे बताया कि चाची की लड़की का तिलक आया है. उस में संतोष भी गए हैं. वह घर में अकेली ही रहेगी. रात काफी हो चुकी है. इतनी रात को गाड़ी से घर जाना ठीक नहीं है. आज रात वह उस के घर पर ही रहेगी.
अरुण संगीता को साथ लिए अपने घर आ गया. वह उस के लिए अपना बैडरूम खाली कर खुद ड्राइंगरूम में सोने चला गया. वह काफी थका हुआ था, इसलिए दीवान पर लुढ़कते ही उसे गहरी नींद आ गई.
रात गहरी हो चुकी थी. अचानक अरुण को अपने ऊपर बोझ का अहसास हुआ. उस की नाक में परफ्यूम की खुशबू भर गई. वह हड़बड़ा कर उठ बैठा. उस ने देखा कि संगीता उस के ऊपर झुकी हुई थी.
उस ने संगीता को हटाया, तो वह उस के बगल में बैठ गई. अरुण ने देखा कि संगीता की आंखों में अजीब सी प्यास थी. मामला समझ कर अरुण दीवान से उठ कर खड़ा हो गया.
बेचैनी की हालत में संगीता अपनी दोनों बांहें फैला कर बोली, ‘‘सालों बाद मैं ने यह मौका पाया है अरुण, मुझे निराश न करो.’’
लेकिन अरुण ने संगीता को लताड़ते हुए कहा, ‘‘लानत है तुम पर संगीता. औरत तो हमेशा पति के प्रति वफादार रहती है और तुम हो, जो संतोष को धोखा देने पर तुली हुई हो.
‘‘तुम ने कैसे समझ लिया कि मेरा चरित्र तिनके का बना है, जो हवा के झोंके से उड़ जाएगा.
‘‘तुम्हें पता होना चाहिए कि मेरा शरीर मेरी बीवी की अमानत है. इस पर केवल उसी का हक बनता है. मैं इसे तुम्हें दे कर उस के साथ धोखा नहीं करूंगा.
‘‘संगीता, होश में आओ. सुनो, औरत जब एक बार गिरती है, तो उस की बरबादी तय हो जाती है,’’ अपनी बात कहते हुए अरुण ने संगीता को अपने कमरे से बाहर कर के दरवाजा बंद कर लिया.
सुबह देर से उठने के बाद अरुण को पता चला कि संगीता तो तड़के ही वहां से चली गई थी.
अरुण ने अपनी समझदारी से खुद को तो गिरने से बचाया ही, संगीता को भी भटकने नहीं दिया.

तलाक

कल रात एक ऐसा वाकया हुआ जिसने मेरी ज़िन्दगी के कई पहलुओं को छू लिया.
करीब 7 बजे होंगे,शाम को मोबाइल बजा ।
उठाया तो उधर से रोने की आवाज...
मैंने शांत कराया और पूछा कि भाभीजी आखिर हुआ क्या?
उधर से आवाज़ आई..
आप कहाँ हैं??? और कितनी देर में आ सकते हैं?
मैंने कहा:- "आप परेशानी बताइये"।
और "भाई साहब कहाँ हैं...?माताजी किधर हैं..?" "आखिर हुआ क्या...?"
लेकिन
उधर से केवल एक रट कि "आप आ जाइए", मैंने आश्वाशन दिया कि कम से कम एक घंटा पहुंचने में लगेगा. जैसे तैसे पूरी घबड़ाहट में पहुँचा;
देखा तो भाई साहब [हमारे मित्र जो जज हैं] सामने बैठे हुए हैं;
भाभीजी रोना चीखना कर रही हैं 12 साल का बेटा भी परेशान है; 9 साल की बेटी भी कुछ नहीं कह पा रही है।
मैंने भाई साहब से पूछा कि ""आखिर क्या बात है""???
""भाई साहब कोई जवाब नहीं दे रहे थे "".
फिर भाभी जी ने कहा ये देखिये तलाक के पेपर, ये कोर्ट से तैयार करा के लाये हैं, मुझे तलाक देना चाहते हैं,
मैंने पूछा - ये कैसे हो सकता है???. इतनी अच्छी फैमिली है. 2 बच्चे हैं. सब कुछ सेटल्ड है. ""प्रथम दृष्टि में मुझे लगा ये मजाक है"".
लेकिन मैंने बच्चों से पूछा दादी किधर है,
बच्चों ने बताया पापा ने उन्हें 3 दिन पहले नोएडा के वृद्धाश्रम में शिफ्ट कर दिया है.
मैंने घर के नौकर से कहा।
मुझे और भाई साहब को चाय पिलाओ;
कुछ देर में चाय आई. भाई साहब को बहुत कोशिशें कीं चाय पिलाने की.
लेकिन उन्होंने नहीं पी और कुछ ही देर में वो एक "मासूम बच्चे की तरह फूटफूट कर रोने लगे "बोले मैंने 3 दिन से कुछ भी नहीं खाया है. मैं अपनी 61 साल की माँ को कुछ लोगों के हवाले करके आया हूँ.
पिछले साल से मेरे घर में उनके लिए इतनी मुसीबतें हो गईं कि पत्नी (भाभीजी) ने कसम खा ली. कि ""मैं माँ जी का ध्यान नहीं रख सकती"" ना तो ये उनसे बात करती थी और ना ही मेरे बच्चे बात करते थे. रोज़ मेरे कोर्ट से आने के बाद माँ खूब रोती थी. नौकर तक भी अपनी मनमानी से व्यवहार करते थे।
माँ ने 10 दिन पहले बोल दिया.. बेटा तू मुझे ओल्ड ऐज होम में शिफ्ट कर दे.
मैंने बहुत कोशिशें कीं पूरी फैमिली को समझाने की, लेकिन किसी ने माँ से सीधे मुँह बात नहीं की.
जब मैं 2 साल का था तब पापा की मृत्यु हो गई थी दूसरों के घरों में काम करके ""मुझे पढ़ाया. मुझे इस काबिल बनाया कि आज मैं जज हूँ"". लोग बताते हैं माँ कभी दूसरों के घरों में काम करते वक़्त भी मुझे अकेला नहीं छोड़ती थीं.
उस माँ को मैं ओल्ड ऐज होम में शिफ्ट करके आया हूँ। पिछले 3 दिनों से
मैं अपनी माँ के एक-एक दुःख को याद करके तड़प रहा हूँ,जो उसने केवल मेरे लिए उठाये।मुझे आज भी याद है जब..
""मैं 10th की परीक्षा में अपीयर होने वाला था. माँ मेरे साथ रात रात भर बैठी रहती"".
एक बार माँ को बहुत फीवर हुआ मैं तभी स्कूल से आया था. उसका शरीर गर्म था, तप रहा था. मैंने कहा *माँ तुझे फीवर है हँसते हुए बोली अभी खाना बना रही थी इसलिए गर्म है।
लोगों से उधार माँग कर मुझे दिल्ली विश्वविद्यालय से एलएलबी तक पढ़ाया. मुझे ट्यूशन तक नहीं पढ़ाने देती थीं कि कहीं मेरा टाइम ख़राब ना हो जाए.
कहते-कहते रोने लगे..और बोले--""जब ऐसी माँ के हम नहीं हो सके तो हम अपने बीबी और बच्चों के क्या होंगे"".
हम जिनके शरीर के टुकड़े हैं,आज हम उनको ऐसे लोगों के हवाले कर आये, ""जो उनकी आदत, उनकी बीमारी, उनके बारे में कुछ भी नहीं जानते"",
जब मैं ऐसी माँ के लिए कुछ नहीं कर सकता तो "मैं किसी और के लिए भला क्या कर सकता हूँ".
आज़ादी अगर इतनी प्यारी है और माँ इतनी बोझ लग रही हैं, तो मैं पूरी आज़ादी देना चाहता हूँ
जब मैं बिना बाप के पल गया तो ये बच्चे भी पल जाएंगे. इसीलिए मैं तलाक देना चाहता हूँ।
सारी प्रॉपर्टी इन लोगों के हवाले करके उस ओल्ड ऐज होम में रहूँगा. कम से कम मैं माँ के साथ रह तो सकता हूँ।
और अगर इतना सब कुछ कर के ""माँ आश्रम में रहने के लिए मजबूर है"", तो एक दिन मुझे भी आखिर जाना ही पड़ेगा.
माँ के साथ रहते-रहते आदत भी हो जायेगी. माँ की तरह तकलीफ तो नहीं होगी.जितना बोलते उससे भी ज्यादा रो रहे थे।
बातें करते करते रात के 12:30 हो गए।
मैंने भाभीजी के चेहरे को देखा.
उनके भाव भी प्रायश्चित्त और ग्लानि से भरे हुए थे; मैंने ड्राईवर से कहा अभी हम लोग नोएडा जाएंगे।
भाभीजी और बच्चे हम सारे लोग नोएडा पहुँचे.
बहुत ज़्यादा रिक्वेस्ट करने पर गेट खुला। भाई साहब ने उस गेटकीपर के पैर पकड़ लिए, बोले मेरी माँ है, मैं उसको लेने आया हूँ,
चौकीदार ने कहा क्या करते हो साहब,
भाई साहब ने कहा मैं जज हूँ,
उस चौकीदार ने कहा:-
जहाँ सारे सबूत सामने हैं तब तो आप अपनी माँ के साथ न्याय नहीं कर पाये,औरों के साथ क्या न्याय करते होगे।
इतना कहकर हम लोगों को वहीं रोककर वह अन्दर चला गया.
अन्दर से एक महिला आई जो वार्डन थी.
उसने बड़े कातर शब्दों में कहा:-
"2 बजे रात को आप लोग ले जाके कहीं मार दें, तो
मैं अपने ईश्वर को क्या जबाब दूंगी..?"
मैंने सिस्टर से कहा आप विश्वास करिये. ये लोग बहुत बड़े पश्चाताप में जी रहे हैं।
अंत में किसी तरह उनके कमरे में ले गईं. कमरे में जो दृश्य था, उसको कहने की स्थिति में मैं नहीं हूँ।
केवल एक फ़ोटो जिसमें  पूरी फैमिली  है और वो भी माँ जी के बगल में, जैसे किसी बच्चे को सुला रखा है.
मुझे देखीं तो उनको लगा कि बात न खुल जाए
लेकिन जब मैंने कहा हम लोग आप को लेने आये हैं, तो पूरी फैमिली एक दूसरे को पकड़ कर रोने लगी
आसपास के कमरों में और भी बुजुर्ग थे सब लोग जाग कर बाहर तक ही आ गए.
उनकी भी आँखें नम थीं
कुछ समय के बाद चलने की तैयारी हुई. पूरे आश्रम के लोग बाहर तक आये. किसी तरह हम लोग आश्रम के लोगों को छोड़ पाये.
सब लोग इस आशा से देख रहे थे कि शायद उनको भी कोई लेने आए, रास्ते भर बच्चे और भाभी जी तो शान्त रहे......
लेकिन भाई साहब और माताजी एक दूसरे की भावनाओं को अपने पुराने रिश्ते पर बिठा रहे थे।घर आते-आते करीब 3:45 हो गया.
भाभीजी भी अपनी ख़ुशी की चाबी कहाँ है; ये समझ गई थी।
मैं भी चल दिया. लेकिन रास्ते भर वो सारी बातें और दृश्य घूमते रहे*.
""माँ केवल माँ है""

उसको मरने से पहले ना मारें.
माँ हमारी ताकत है उसे बेसहारा न होने दें , अगर वह कमज़ोर हो गई तो हमारी संस्कृति की ""रीढ़ कमज़ोर"" हो जाएगी , बिना रीढ़ का समाज कैसा होता है किसी से छुपा नहीं
अगर आपकी परिचित परिवार में ऐसी कोई समस्या हो तो उसको ये जरूर पढ़ायें, बात को प्रभावी ढंग से समझायें , कुछ भी करें लेकिन हमारी जननी को बेसहारा बेघर न होने दें, अगर माँ की आँख से आँसू गिर गए तो "ये क़र्ज़ कई जन्मों तक रहेगा", यकीन मानना सब होगा तुम्हारे पास पर ""सुकून नहीं होगा"" , सुकून सिर्फ माँ के आँचल में होता है उस आँचल को बिखरने मत देना।

Saturday, September 21, 2019

जिंदगी भर की मेहनत


एक बडी कंपनी के गेट के सामने एक प्रसिद्ध समोसे की दुकान थी, लंच टाइम मे अक्सर कंपनी के कर्मचारी वहाँ आकर समोसे खाया करते थे।
एक दिन कंपनी के एक मैनेजर समोसे खाते खाते समोसेवाले से मजाक के मूड मे आ गये।
मैनेजर साहब ने समोसेवाले से कहा, "यार गोपाल, तुम्हारी दुकान तुमने बहुत अच्छे से maintain की है, लेकीन क्या तुम्हे नही लगता के तुम अपना समय और टैलेंट समोसे बेचकर बर्बाद कर रहे हो.? सोचो अगर तुम मेरी तरह इस कंपनी मे काम कर रहे होते तो आज कहा होते.. हो सकता है शायद तुम भी आज मैंनेजर होते मेरी तरह.."
इस बात पर समोसेवाले गोपाल ने बडा सोचा, और बोला, " सर ये मेरा काम अपके काम से कही बेहतर है, 10 साल पहले जब मै टोकरी मे समोसे बेचता था तभी आपकी जाॅब लगी थी, तब मै महीना हजार रुपये कमाता था और आपकी पगार थी १० हजार।
इन 10 सालो मे हम दोनो ने खूब मेहनत की..
आप सुपरवाइजर से मॅनेजर बन गये.
और मै टोकरी से इस प्रसिद्ध दुकान तक पहुँच गया.
आज आप महीना ५०,००० कमाते है
और मै महीना २,००,०००
लेकिन इस बात के लिए मै मेरे काम को आपके काम से बेहतर नही कह रहा हूँ।
ये तो मै बच्चों के कारण कह रहा हूँ।
जरा सोचिए सर मैने तो बहुत कम कमाई पर धंधा शुरू किया था, मगर मेरे बेटे को यह सब नही झेलना पडेगा।
मेरी दुकान मेरे बेटे को मिलेगी, मैने जिंदगी मे जो मेहनत की है, वो उसका लाभ मेरे बच्चे उठाएंगे। जबकी आपकी जिंदगी भर की मेहनत का लाभ आपके मालिक के बच्चे उठाएंगे।
अब आपके बेटे को आप डाइरेक्टली अपनी पोस्ट पर तो नही बिठा सकते ना.. उसे भी आपकी ही तरह जीरो से शुरूआत करनी पडेगी.. और अपने कार्यकाल के अंत मे वही पहुच जाएगा जहाँ अभी आप हो।
जबकी मेरा बेटा बिजनेस को यहा से और आगे ले जाएगा..
और अपने कार्यकाल मे हम सबसे बहुत आगे निकल जाएगा..
अब आप ही बताइये किसका समय और टैलेंट बर्बाद हो रहा है ?"
मैनेजर साहब ने समोसेवाले को २ समोसे के २० रुपये दिये और बिना कुछ बोले वहाँ से खिसक लिये.......!!!

अजनबी

एक पाँच छ: साल का मासूम सा बच्चा अपनी छोटी बहन को लेकर मंदिर के एक तरफ कोने में बैठा हाथ जोडकर भगवान से न जाने क्या मांग रहा था ।
कपड़े में मैल लगा हुआ था मगर निहायत साफ, उसके नन्हे नन्हे से गाल आँसूओं से भीग चुके थे ।
बहुत लोग उसकी तरफ आकर्षित थे और वह बिल्कुल अनजान अपने भगवान से बातों में लगा हुआ था ।
जैसे ही वह उठा एक अजनबी ने बढ़ के उसका नन्हा सा हाथ पकड़ा और पूछा : -
"क्या मांगा भगवान से"
उसने कहा : -
"मेरे पापा मर गए हैं उनके लिए स्वर्ग,
मेरी माँ रोती रहती है उनके लिए सब्र,
मेरी बहन माँ से कपडे सामान मांगती है उसके लिए पैसे"..
"तुम स्कूल जाते हो"..?
अजनबी का सवाल स्वाभाविक सा सवाल था ।
हां जाता हूं, उसने कहा ।
किस क्लास में पढ़ते हो ? अजनबी ने पूछा
नहीं अंकल पढ़ने नहीं जाता, मां चने बना देती है वह स्कूल के बच्चों को बेचता हूँ ।
बहुत सारे बच्चे मुझसे चने खरीदते हैं, हमारा यही काम धंधा है ।
बच्चे का एक एक शब्द मेरी रूह में उतर रहा था ।
"तुम्हारा कोई रिश्तेदार"
न चाहते हुए भी अजनबी बच्चे से पूछ बैठा ।
पता नहीं, माँ कहती है गरीब का कोई रिश्तेदार नहीं होता,
माँ झूठ नहीं बोलती,
पर अंकल,
मुझे लगता है मेरी माँ कभी कभी झूठ बोलती है,
जब हम खाना खाते हैं हमें देखती रहती है ।
जब कहता हूँ
माँ तुम भी खाओ, तो कहती है मैने खा लिया था, उस समय लगता है झूठ बोलती है ।
बेटा अगर तुम्हारे घर का खर्च मिल जाय तो पढाई करोगे ?
"बिल्कुलु नहीं"
"क्यों"
पढ़ाई करने वाले, गरीबों से नफरत करते हैं अंकल,
हमें किसी पढ़े हुए ने कभी नहीं पूछा - पास से गुजर जाते हैं ।
अजनबी हैरान भी था और शर्मिंदा भी ।
फिर उसने कहा
"हर दिन इसी इस मंदिर में आता हूँ,
कभी किसी ने नहीं पूछा - यहाँ सब आने वाले मेरे पिताजी को जानते थे - मगर हमें कोई नहीं जानता ।
"बच्चा जोर-जोर से रोने लगा"
 अंकल जब बाप मर जाता है तो सब अजनबी क्यों हो जाते हैं ?
मेरे पास इसका कोई जवाब नही था...

Friday, September 20, 2019

परवरिश

"हमे छोड़ कर मत जाओ मम्मी ,,, हम आपके
बिना बिलकुल अकेले हो जायेंगे " उषा के दोनों बेटे संजू और कपिल दोनों ICU के बाहर खड़े रो रहे थे ,,, साथ में पिता हंसराज उनको होंसला देने में प्रयासरत थे। केवल 40 साल की उम्र में हृदयघात ? हंसराज की समझ से परे था। पापा दादा दादी को फ़ोन करदु ? कपिल ने पूछा। "करदो मगर ये मत बताना हृदयाघात हुआ है " परेशां हो जायेंगे। कहना मम्मी की तबियत थोड़ी ख़राब है ,, आपको याद कर रही है। "ठीक है पापा "

"डॉक्टर कैसी है उषा ? " अचानक सदमा लगने से हुआ ये ,,, हम अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहे है। बाकि भगवान् से दुआ कीजिये ,, "पापा आप थोड़ा विश्राम कर लीजिए घर जाकर " ,,, हम दोनों है मम्मी का ध्यान रखने के लिए। हंसराज जी का अंदर ही अंदर कुछ बिखर सा रहा था। "नहीं में यही आराम करता हूँ रेस्ट रूम में " "ठीक है पापा " अंदर जाकर हंसराज जी लेट गए ,, और सोचने लगे क्या भूल हुई हमसे ? कितना चाव से लाड से दोनों बच्चो को पाला।
अपना बचपन, जवानी सारी अभाव में गुजरी ,,, बाबूजी शंकरदयाल सरकारी विद्यालय के अध्यापक ,,, जो घर में भी पिता से ज्यादा मास्टर जी ही थे। पिता ने कभी गोद में नहीं उठाया ,, उस समय मर्द बच्चे को गोद में उठाना अपनी शान के खिलाफ समझते थे ,,, कभी कोई चीज मांग लो... कभी नहीं मिली ,,, एक बार "बाबू जी मुझे साइकिल दिलवा दो ? " "क्या करेगा साइकिल लेकर ?" 2 किमी पर ही स्कूल है पैदल जायेगा सेहत बनी रहेगी। मन मसोस कर रह गया था ,, इसी तरह पढाई के लिए कितनी पिटाई हुई,, लगभग प्रतिदिन इंटर पास करने तक। सरकारी स्कूल से पढ़ने वाले हंसराज ,, बाबूजी ने हर अध्यापक को कह रखा था इसको बिलकुल ढील नहीं देनी . ,, चाहे जान से मार दो ,, मगर इसे पढाई में पीछे नहीं रहने देना।

जो बना घर में वही खाने को मिलता था ,, कभी बाहर का चटोरापन करने की छूट नहीं मिली ,,, "बाबूजी चलो कहीं पहाड़ो पर घुमा लाओ ? " एक बार बड़ी हिम्मत करके कहा। "आज तो कह दिया आज के बाद मत कहना "
सुबह 4 बजे उठाना ,, पानी भर कर लाना ,, पशुओं का चारा त्यार करना फिर 7 बजे स्कूल जाना ,, स्कूल से आते ही बाबूजी पढ़ाने के लिए लेकर बैठ जाते थे ,,,
खूब रोता दिल ,, हर पल मन सोचता घर है या कारागार ? यही था अब किसी तरह बाहर पढाई के लिए चला जाऊं। मन ही मन पिता को कोसता था ,, लेकिन थर थर काँपता था उनके सामने।

10वी की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करने के बाद छात्रवृति के लिए भी चयन हुआ ,, इण्टर की पढाई में बाबूजी ने कभी नहीं पढ़ाया ,, या यु कहिये खुद ही पढ़ने में समर्थ हो गया था। बाबूजी ने कृषि स्नातक में दाखिला कराया ,,, लेकिन मन नहीं लगा ,, एक साल के बाद नया कोर्स आया सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग का डिप्लोमा ,,, हंसराज ने पिता से हिम्मत करके कहा मुझे ये कोर्स करवा दो ,, ,शंकरदयाल ने बहुत मना किया, लेकिन ज़िद करके डिप्लोमा करने चला गया। साथ में यह भी कहा आपका सारा पैसा सूद सहित चूका दूंगा। 3 साल आजादी के गुजर गए हँसते हँसते ,, पता ही नहीं चला। बस ये सोचता दिन जो पखेरू होता पिंजरे में मैं रख लेता ,, लेकिन वक़्त का चक्र कब रुका है चलता है निरंतर चलता ही जाता है।

नौकरी के लिए काफी जद्दोजहद करनी पड़ी ,,, सरकारी नौकरी नहीं मिली ,, प्राइवेट जॉब के लिए 2 साल का संघर्ष करना पड़ा। आखिर अच्छी नौकरी मिली MNC में ,,, डिप्लोमा में कुल 30000 हजार खर्च हुआ , सारा हिसाब हंसराज ने लिख रखा था,,, 50000 वापिस करदिए पिता को ,, पिता खुश हुए ,, जब अपनी औलाद खुद्दार हो, कामयाब हो तो गर्व होना स्वाभाविक ही है ,, फिर हंसराज के जीवन में आयी लक्ष्मी यानि धर्म पत्नी उषा जी ,,, एक साल में घर में संजू और चौथे साल कपिल की किलकारियां घर में गूंजने लगी। शंकरदयाल और हंसराज की माँ सुमित्रा देवी का तो मानो बचपन ही लोट आया था ,, पोतों को पाकर दोनों बहुत खुश थे।

हंसराज मेट्रो सिटी में परिवार को लेकर आ गया माता पिता गांव में ही रहते थे ,, कभी कभार मिलने जरूर आ जाते थे।
हंसराज ने सोचा जो मेरे सपने थे,, जो मेने झेला वो मेरे बच्चे नहीं झेलेंगे। अपनों बच्चो को माँ से भी जयादा चाव लाड करते थे ,,, बहुत कम पिता होते है जो बच्चे का मल साफ़ करते होंगे , लेकिन हंसराज ने कभी घृणा नहीं की ,, हर ख्वाइश पूरी करने की कोशिश करते। धीरे धीरे बच्चे बड़े हो रहे थे अच्छे स्कूल में डाल दिया उसको,, हंसराज का सपना पर्यटन का ,,, उन्होंने वो खूब पूरा किया ,,बच्चो के साथ घूमने जाना ,, बच्चों पर कभी हाथ नहीं उठाया। उषा देवी भी बच्चों को असीम स्नेह देती थी ,,सब सही चल रहा था ,,, कई बार हंसराज को संजू की गलती पर गुस्सा आता ,, डांटने या पीटने की कोशिश करता तो मम्मी उषा देवी बीच में आ जाती। जब संजू 10 साल का था IPAD की जिद करने लगा ,, हंसराज अख़बार में पढ़ते रहते थे ,, इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स बच्चों को खराब करते है ,,, मना कर दिया "उषा इन चीजों से हमने बच्चो  को बचाना है ,, अगर नहीं बचाया तो इनके भविष्य के लिए खतरा है। "देखो जी बच्चा है ,, जब दूसरे बच्चो को देखता है ,, इसके मन पर क्या बीत ती होगी ? ...

इंसान कई बार इस लिए भी झुक जाता है ,, कहीं कलेश न हो जाये। संजू स्कूल न जाकर इधर उधर घूमता पाया गया ,,, लेकिन उषा ने बताना उचित नहीं समझा। उसको डर था कहीं हंसराज संजू को मारे न। इसी तरह हंसराज उषा के आगे झुकते चले गए ,,, कितनी बार समझाते तुम्हारे लाड प्यार से हाथ से निकल जायेगा। 12 साल की उम्र में हंसराज ने कहा फ़ोन दिलवाना है तो कीपैड वाला दिलवा दो ,, नहीं संजू को स्मार्ट फ़ोन पसंद था ,, वो भी मजबूरी में दिलवाना पड़ा। हंसराज ने बहुत समझाया ,,, गलत इस्तेमाल भी कर सकता है ,, जैसे पोर्न साइट्स वगेरह । लेकिन उषा के लाड के आगे हंसराज को झुकना पड़ा।

दिन पर दिन पढाई में पिछड़ता गया ,, अब इतना उच्छृंखल हो गया था ,, मम्मी पापा के आगे जुबान चलाने लग गया था। देखा देखि छोटा कपिल भी बिगड़ने की राह पर चल पड़ा था। "कहाँ कमी छोड़ी हमने " अपने पिता की तरह में पढ़ा नहीं सकता था ,, वजह मेरी लम्बी ड्यूटी टाइमिंग। हर बात हर जिद संजू अपनी मनवाने लगा था। आखिर वो 10वी में फ़ैल हो गया ,,, दोनों माता पिता को बड़ा सदमा लगा। इनकी परवरिश कमी नहीं छोड़ी फिर यह सिला दिया ।

यारी दोस्ती ऐसे अमीर लोगो की, बिगड़ी औलादो से रखी हुई थी ,, उनमे से कुछ नशे के भी आदी थे। संजू ने एक गर्लफ्रेंड भी बना रखी थी ,, ये मम्मी को पता था पापा को नहीं। कितना फर्क था मेरी और मेरे पिता की परवरिश में ,,, आज समझ आता है पिता सही थे। इंसान को अक्सर 40 साल के बाद यही समझ आता है मेरे पिता हमेशा सही थे।
कल संजू ने उषा देवी से और हंसराज से एक लाख मांगे ,, मम्मी पापा मुझे बाइक और लैपटॉप लेना है। अगर दिलवा सकते हो तो ठीक वरना में नहीं पढ़ने वाला। "हमारे लिए नहीं पढ़ रहा , इसमें तुम्हारा ही फायदा है " हंसराज बोलै। "अपने पापा से जुबान लड़ाता है शर्म आनी चाहिए तुझे " मम्मी तुम कौन होती हो बीच में बोलने वाली " आप लोगो ने किया ही क्या है मेरे लिए ? ये मत लो,, वो मत लो। अगर पैसे नहीं दोगे मेरा आप से कोई रिश्ता नहीं। शब्द सुनते ही उषा के हाथ पैर ठन्डे हो गए ,, माथे पर पसीने की लकीरे उकेर गयी। बेहोश हो कर नीचे गिर ही जाती अगर हंसराज बाँहों में नहीं थामते फटाफट उषा को सिटी अस्पताल ले आये ,, जहाँ मोत और जिंदगी के बीच झूल रही थी। "अगर तुम्हे कुछ हो गया उषा में भी जीकर क्या करूँगा "
"पापा पापा मम्मी को होश आ गया " आवाज सुनकर हंसराज की तन्द्रा भंग हुई। हंसराज की जान में जान आयी।

"डॉक्टर साब ?" अब उषा जी खतरे से बाहर है ,, इनका बड़ा ध्यान रखना पड़ेगा। तीनो ने एक साथ हामी भरी। एक सुकून भरी मुस्कान थी ,, "मुझे माफ़ करदो " संजू ने रोते हुए कहा। पापा ने दोनों बचो को गले लगा लिया। "पापा आज से जो आप कहोगे हम वही करेंगे दोनों बच्चों ने कहा " आज हंसराज को भी गर्व होने लगा परवरिश पर। तभी शंकर दयाल और सुमित्रा देवी भी पहुँच आशीर्वाद देने। सारे हालत  बच्चों ने बयान कर दिए। "माँ, बाबूजी जीवन के मोड़ पर बहुत अकेला महसूस करता हूँ ,,, आप लोगों की बहुत याद आती है,, मुझे आपकी जरुरत है ,, आप यहाँ क्यों नहीं आ जाते हमारे पास। " फफक फफक कर रोने लगे हंस राज ,, जो अभी तक बच्चो के सामने मजबूत बने हुए थे ,, माता पिता के सामने बच्चों की भांति रो पड़े। औरत आसानी से रोकर गम हल्का कर लेती है ,, लेकिन मर्द को रोना शोभा नहीं देता , यही सोच कर रो भी नहीं पाता। आज हंसराज को भी पिता ने पहली बार गले लगाकर सम्बल दिया। मन के बादल झमाझम बरस गए। ठीक है बेटा अब हम साथ में रहेंगे ,, आंसू पोछते हुए हंसराज के शंकरदयाल बोलै ।

बीच की दीवार

मायके जाने पर बेटी की खुशी का ठिकाना नहीं रहता. मगर जब सुजा अपने मायके पहुंची तो उस का दिल रो उठा. आखिर क्या हो गया था वहां?
‘‘मम्मी,आप नानी के यहां जाने के लिए पैकिंग करते हुए भी इतनी उदास क्यों लग रही हैं? आप को तो खुश होना चाहिए. नानी, मामा से मिलने जा रही हैं, पिंकी दीदी, सोनू भैया भी मिलेंगे.’’
‘‘नहीं नहीं खुश तो हूं, बस जाने से पहले क्याक्या काम निबटाने हैं, यही सोच रही हूं.’’
‘‘खूब ऐंजौय करना मम्मी, हमारी पढ़ाई के कारण तो आप का जल्दी निकलना भी नहीं होता,’’ कह कर मेरे गाल पर किस कर के मेरी बेटी सुकन्या चली गई.
सही तो कह रही है, कोई मायके जाते हुए भी इतना उदास होता है? मायके जाते समय तो एक धीरगंभीर स्त्री भी चंचल तरुणी बन जाती है पर सुकन्या को क्या बताऊं, कैसे दिखाऊं उसे अपने मन पर लगे घाव. 20 साल की ही तो है. दुनिया के दांवपेचों से दूर. अभी तो उस की अपनी अलग दुनिया है, मांबाप के साए में हंसतीमुसकराती, खिलखिलाती दुनिया.
मेरे जाने के बाद अमित, सुकन्या और उस से 3 साल छोटे सौरभ को कोई परेशानी न हो, इस बात का ध्यान रखते हुए घर की साफसफाई करने वाली रमाबाई और खाना बनाने वाली कमला को अच्छी तरह निर्देश दे दिए थे. अपना बैग बंद कर मैं अमित का औफिस से आने का इंतजार कर रही थी.
सौरभ ने भी खेल कर आने पर पहला सवाल यही किया, ‘‘मम्मी, पैकिंग हो गई? आप बहुत सीरियस लग रही हैं, क्या हुआ?’’
‘‘नहीं, ठीक हूं,’’ कहते हुए मैं ने मुसकराने की कोशिश की.
इतने में अमित भी आ गए. हम चारों ने साथ डिनर किया. खाना खत्म होते ही अमित बोले, ‘‘सुजाता, आज टाइम पर सो जाना. अब किसी काम की चिंता मत करना, सुबह 5 बजे एअरपोर्ट के लिए निकलना है.’’
सब काम निबटाने में 11 बज ही गए. सोने लेटी तो अजीब सा दुख और बेचैनी थी. किसी से कह नहीं पा रही थी कि मुझे नहीं जाना मां के घर, मुझे नहीं अच्छे लगते लड़ाईझगड़े. अकसर सोचती हूं क्या शांति और प्यार से रहना बहुत मुश्किल काम है? बस अमित मेरी मनोदशा समझते हैं, लेकिन वे भी क्या कहें, खून के रिश्तों का एक अजीब, अलग ही सच यह भी है कि अगर कोई गैर आप का दिल दुखाए तो आप उस से एक झटके में किनारा कर सकते हैं, लेकिन ये खून के अपने सगे रिश्ते मन को चाहे बारबार लहूलुहान करें आप इन से भाग नहीं सकते. कल मैं मुंबई एअरपोर्ट से फ्लाइट पकड़ूगी, 2 घंटों में दिल्ली पहुंच कर फिर टैक्सी से मेरठ मायके पहुंच जाऊंगी. जहां फिर कोई झगड़ा देखने को मिलेगा. झगड़ा वह भी मांबेटे के बीच का, सोच कर ही शर्म आ जाती है, रिटायर्ड टीचर मां और पढ़ेलिखे मुझ से 5 साल बड़े नरेन भैया, गीता भाभी और मेरी भतीजी पिंकी व भतीजे सोनू के बीच का झगड़ा, कौन गलत है कौन सही, मैं कुछ सोचना नहीं चाहती, लेकिन दोनों मुझे फोन पर एकदूसरे की गलती बताते रहते हैं, तो मन का स्वाद कसैला हो जाता है मेरा. मायके का यह तनाव आज का नहीं है.
5 साल पहले मां जब रिटायर हुई थीं तब से यही चल रहा है. आपस के स्नेहसूत्र कहां खो गए, पता ही नहीं चला. पिछली बार मैं 2 साल पहले गई थी. इन 2 सालों में हर फोन पर तनाव बढ़ता ही दिखा. अब तो हालत यह हो गई है कि मुझ से तो कोई यह पूछता ही नहीं है कि मैं कैसी हूं, अमित और बच्चे कैसे हैं, बस मेरे ‘नमस्ते’ कहते ही शिकायतों का पिटारा खोल देते हैं सब. ऐसे माहौल में मायके जाते समय किस बेटी का दिल खुश होगा? मैं तो अब भी न जाती पर मां ने फौरन आने के लिए कहा है तो मैं बहुत बेमन से कल जा रही हूं. काश, पापा होते. बस, इतना सोचते ही आंखें भर आती हैं मेरी.
मैं 13 वर्ष की ही थी जब उन का हार्टफेल हो गया था. उन का न रहना जीवन में एक ऐसा खालीपन दे गया जिस की कमी मुझे हमेशा महसूस हुई है. उन्हें ही याद करतेकरते मेरी आंख कब लगी, पता ही नहीं चला.
सुबह बच्चों को अच्छी तरह रहने के निर्देश देते हुए हम एअरपोर्ट के लिए निकल गए. अमित से बिदा ले कर अंदर चली गई और नियत समय पर उदास सा सफर खत्म हुआ.
जैसे ही घर पहुंची, मां गेट पर ही खड़ी थीं, टैक्सी से उतरते ही घर पर एक नजर डाली तो बाहर से ही मुझे जो बदलाव दिखा उसे देख मेरा दिल बुझ गया. अब घर के एक गेट की जगह 2 गेट दिख रहे थे और एक ही घर के बीच में दिख रही थी एक दीवार. दिल को बड़ा धक्का लगा.
मैं ने गेट के बाहर से ही पूछा, ‘‘मां, यह क्या?’’
‘‘कुछ नहीं, मेरे बस का नहीं था रोजरोज का क्लेश. अब दीवार खींचने से शांति रहती है. वे लोग उधर खुश, मैं इधर खुश.’’
खुश… एक ही आंगन के 2 हिस्से. इस में खुश कैसे रह सकता है कोई?
मां और मेरी आवाज सुन कर भैया और उन का परिवार भी अपने गेट पर आ गया.
भैया ने मेरे सिर पर हाथ रख कर कहा, ‘‘कैसी है सुजाता?’’
गीता भाभी भी मुझ से गले मिलीं. पिंकी, सोनू तो चिपट ही गए, ‘‘बूआ, हमारे घर चलो.’’
इतने में मां ने कहा, ‘‘सुजाता, चल अंदर यहां कब तक खड़ी रहेगी?’’
मैं तो कुछ समझ नहीं पा रही थी कि यह क्या हो गया, क्या करूं.
भैया ने ही कहा, ‘‘जा सुजाता, बाद में मिलते हैं.’’
मैं अपना बैग उठाए मां के पीछे चल दी. दीवार खड़ी होते ही घर का पूरा नक्शा बदल गया था. छत पर जाने वाली सीढि़यां भैया के हिस्से में चली गई थीं. अब छत पर जाने के लिए भैया के गेट से अंदर जाना था. आंगन का एक बड़ा हिस्सा भैया की तरफ था और एक छोटी गैलरी मां के हिस्से में जहां से बाहर का रास्ता था.
आंगन और गैलरी के बीच खड़ी एक दीवार जिसे देखदेख कर मेरे दिल
में हौल उठ रहे थे. मां एकदम शांत और सामान्य थीं. नहाधो कर मैं थोड़ी देर लेट गई. मां चाय ले आईं और फिर खुल गया शिकायतों का पिटारा. मैं अनमनी सी हो गई. इतनी दूर मैं क्या इसलिए आई हूं कि यह जान सकूं कि भाभी ने टाइम पर खाना क्यों नहीं बनाया, भैया भाभी के साथ उन के मायके क्यों जाते हैं बारबार, भाभी उन्हें बिना बताए पिक्चर क्यों गईं बगैराबगैरा…
मां ने पूछा, ‘‘क्या हुआ? बहुत थक गई क्या? बहुत चुप है?’’
मैं ने भर्राए गले से कहा, ‘‘मां, यह दीवार…’’
बात पूरी नहीं होने दी मां ने, ‘‘बहुत अच्छा हुआ, अब रोज की किटकिट बंद हो गई. अब शांति है. अब बोल, क्या खाएगी और इन लोगों को सिर पर मत चढ़ाना.’’
मैं अवाक मां का मुंह देखती रह गई. इतने में दीवार के उस पार से भैया की आवाज आई, ‘‘सुजाता, लंच यहीं कर लेना. तेरी पसंद का खाना बना है.’’
पिंकी की आवाज भी आई, ‘‘बूआ, जल्दी आओ न.’’
मां ने पलभर सोचा, फिर कहा, ‘‘चल, अच्छा, एक चक्कर काट आ उधर, नहीं तो कहेंगे मां ने भाईबहन को मिलने नहीं दिया.’’
मैं भैया की तरफ गई. पिंकी, सोनू की बातें शुरू हो गईं. दोनों सुकन्या और सौरभ की बातें पूछते रहे और फिर धीरेधीरे भैया और भाभी ने भी मां की शिकायतों का सिलसिला शुरू कर दिया, ‘‘मां हर बात में अपनी आर्थिक स्वतंत्रता की बात करती हैं, उन्हें पैंशन मिलती है, वे किसी पर निर्भर नहीं हैं. बातबात में गुस्सा करती हैं. समय के साथ कोई समझौता नहीं करती हैं.’’
मैं यहां क्यों आ गई, मुझे समझ नहीं आ रहा था. कैसे रहूंगी यहां. यहां सब मुझ से बड़े हैं. मैं किसी को क्या समझाऊं और आज तो पहला ही दिन था.
इतने में मां की आवाज आई, ‘‘सुजाता, खाना लग गया है, आ जा.’’
मैं फिर मां के हिस्से में आ गई. मैं ने बहुत उदास मन से मां के साथ खाना खाया. मां ने मेरी उदासी को मेरी थकान समझा और फिर मैं थोड़ी देर लेट गई. बैड की जिस तरफ मैं लेटी थी वहां से बीच की दीवार साफ दिखाई दे रही थी जिसे देख कर मेरी आंखें बारबार भीग रही थीं.
अपनेअपने अहं के टकराव में मेरी मां और मेरे भैया यह भूल चुके थे कि इस घर की बेटी को आंगन का यह बंटवारा देख कर कैसा लगेगा. मुझे तो यही लग रहा था कि मेरा तो इस घर में गुजरा बचपन, जवानी सब बंट गए हैं. आंगन का वह कोना जहां पता नहीं कितनी दोपहरें सहेलियों के साथ गुड्डेगुडि़या के खेल खेले थे, अमरूद का वह पेड़ जिस के नीचे गरमियों में चारपाई बिछा कर लेट कर पता नहीं कितने उपन्यास पढ़े थे. छत पर जाने वाली वे बीच की चौड़ी सीढि़यां जहां बैठ कर लूडोकैरम खेला था, अब वे सब दीवार के उस पार हैं जहां जाने पर मां की आंखों में नाराजगी के भाव दिखेंगे. मां के हिस्से में वह जगह थी जहां हर तीजत्योहार पर सब साथ बैठते थे, आज वह खालीखाली लग रही थी. घर का बड़ा हिस्सा भैया के पास था. मां ने अपनी जरूरत और घर की बनावट के हिसाब से दीवार खड़ी करवा दी थी.
यही चल रहा था. मैं भैया की तरफ होती तो मां बुला लेतीं और बारबार पूछतीं कि नरेन क्या कह रहा था, भैयाभाभी पूछते मां मुझे क्या बताती हैं उन के बारे में. मैं ‘कुछ खास नहीं’ का नपातुला जवाब सब को देती. मुझे महसूस होता घर भी मेरे दिल की तरह उदास है. मैं मन ही मन अपने जाने के दिन गिनती रहती. अमित और बच्चों से फोन पर बात होती रहती थी. दिनभर मेरा पूरा समय इसी कोशिश में बीतता कि सब के संबंध अच्छे हो जाएं, लेकिन शाम तक परिणाम शून्य होता.
एक दिन मैं ने मां से पूछ ही लिया, ‘‘मां, मुझे आप ने फोन पर इस दीवार के बारे में नहीं बताया और फौरन आने के लिए क्यों कहा था?’’
मां ने कहा, ‘‘ऐसे ही, गीता को दिखाना था मैं अकेली नहीं हूं… बेटी है मेरे साथ.’’
मैं ने भैया से पूछा, ‘‘आप ने फोन पर बताया नहीं कुछ?’’
जवाब भाभी ने दिया, ‘‘बस, फोन पर क्या बताते, दीवार खींच कर मां खुश हो रही हैं तो हमें भी क्या परेशानी है. हम भी आराम से हैं.’’
मेरे मन में आया ये सब खुश हैं तो मुझे ही क्यों तकलीफ हो रही है घर के आंगन में खड़ी दीवार से.
एक दिन तो हद हो गई. मां मुझे साड़ी दिलवाने मार्केट ले जा रही थीं.
मैं ने कहा, ‘‘मां, पिंकी व सोनू को भी बुला लेती हूं. उन्हें उन की पसंद का कुछ खरीद दूंगी.’’
मां ने फौरन कहा, ‘‘नहीं, हम दोनों ही जाएंगे.’’
मैं ने कहा, ‘‘मां, बच्चे हैं, उन से कैसा गुस्सा?’’
‘‘मुझे उन सब पर गुस्सा आता है.’’
मैं उस समय उन्हें नहीं ले जा पाई. उन्हें मैं अलग से ले कर गई. उन्हें उन की पसंद के कपड़े दिलवाए. फिर हम तीनों ने आइसक्रीम खाई. जब से आई थी यह पहला मौका था कि मन को कुछ अच्छा लगा था. पिंकी व सोनू के साथ समय बिता कर मन बहुत हलका हुआ.
5 दिन बीत रहे थे. मुझे अजीब सी मानसिक थकान महसूस हो रही थी. पूरा दिन दोनों तरफ की आवाजों पर कभी इधर, तो कभी उधर घूमती दौड़ती रहती. मन रोता मेरा. किसी को एक बेटी के दिल की कसक नहीं दिख रही थी. किस बेटी का मन नहीं चाहता कि कभी वह 2-3 साल में अपने मायके आए तो प्यार और अपनेपन से भरे रिश्तों की मिठास यादों में साथ ले कर जाए. मगर मैं जल्दी से जल्दी अपने घर मुंबई जाना चाहती थी, क्योंकि मेरा मायका मायका नहीं रह गया था.
वह तो ऐसा मकान था जहां दीवार की दोनों तरफ मांबेटा बुरे पड़ोसियों की तरह रह रहे थे. इस माहौल में किसी बेटी के दिल को चैन नहीं आ सकता था.
मैं ने अमित को बता दिया कि मैं 1 हफ्ते में ही आ रही हूं. अमित सब समझ गए थे. 7वें दिन मैं ने अपना बैग पैक किया. सब से कसैले मन से बिदा ली. भैया ने अपने जानपहचान की टैक्सी बुलवा दी थी. टैक्सी में बैठ कर सीट पर सिर टिका कर मैं ने अपनी आंखें बंद कर लीं. लगा बिदाईर् तो आज हुई है मायके से. शादी के बाद जो बिदाई हुई थी उस में फिर मायके आने की, सब से मिलने की एक आस, चाह और कसक थी, लेकिन अब लग रहा था कभी नहीं आ पाऊंगी. इतने प्यारे, मीठे रिश्ते में आई कड़वाहट सहन करना बहुत मुश्किल था. मायके में खड़ी बीच की दीवार रहरह कर मेरी आंखों के आगे आती रही और मेरे गाल भिगोती रही.

असली पूजा

ये  लड़की  कितनी नास्तिक  है ...हर  रोज  मंदिर के  सामने  से  गुजरेगी  मगर अंदर  आकर  आरती  में शामिल  होना  तो  दूर, भगवान  की  मूर्ति ...