Sunday, October 6, 2019

पी. वी. सिंधु के प्रमुख रिकार्ड्स की सूची

पीवी सिंधु ओलिंपिक स्पर्धा में रजत पदक जीतने वाली पहली भारतीय हैं, इसके अलावा वह पहली भारतीय बैडमिंटन खिलाड़ी बन गई हैं, जिन्होंने 2019 में बीडब्ल्यूएफ विश्व टूर फाइनल में स्वर्ण पदक जीता है. पीवी सिंधु की विश्व में सर्वोच्च रैंकिंग 2 रह चुकी है. वर्तमान में वह विश्व की नंबर 3 खिलाड़ी है.

पीवी सिंधु के बारे में व्यक्तिगत जानकारी :

पूरा नाम: पुसरला वेंकट सिंधु
पिता: पी. वी. रमना
माँ:  पी. विजया
जन्म तिथि और स्थान: 5 जुलाई 1995, हैदराबाद, तेलंगाना
ऊंचाई: 1.79 मीटर (5 फीट 10 इंच)
वजन:  60 किलो (132 पौंड)
सिंधु के शौक:  फिल्में देखना, योगा करना
शिक्षा: सेंट एन कॉलेज फॉर विमेन (मेहदीपट्टनम) से बी.कॉम; अब एमबीए कर रही है.
करियर की शुरुआत: 2011 से
कोच: पुलेला गोपीचंद
करियर रिकॉर्ड: 312 जीत, 129 हार
कैरियर टाइटल्स: 15
उच्चतम रैंकिंग: 2 (7 अप्रैल 2017)
वर्तमान रैंकिंग: 3 (20 अगस्त 2019)
कमाई: $ 8.5 मिलियन, सिंधु फोर्ब्स की "हाइएस्ट-पेड महिला एथलीट 2018" सूची में सातवें स्थान पर रहीं थीं.

पुरस्कार:

1. सिन्धु को 24 सितंबर 2013 में अर्जुन पुरस्कार मिला था.

2. उन्हें 2015 में भारत के चौथे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्म श्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.

3. सिंधु को 29 अगस्त 2016 को भारत के सर्वोच्च खेल सम्मान राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.

पीवी सिंधु तब मशहूर हुईं जब उन्होंने सितंबर 2012 में सिर्फ 17 साल की उम्र में BWF वर्ल्ड रैंकिंग के टॉप 20 में प्रवेश किया था.

पीवी सिंधु ने बैडमिंटन की दुनिया में चीनी खिलाड़ियों के वर्चस्व को तोड़ा है. उसने शीर्ष चीनी खिलाड़ियों को हराया है; विश्व चैम्पियनशिप 2019 और 2017 में चीन की चेन यूफेई को हराया था जबकि सिंधु ने विश्व चैम्पियनशिप 2015 में चीन की ली जुरेई को हराया था.

पी.वी. सिंधु द्वारा जीते गए पदकों की सूची :

1. ओलंपिक खेल:  2016 रियो डी जनेरियो ओलंपिक खेलों में रजत पदक

2. विश्व चैंपियनशिप

A. 2019 में स्वर्ण पदक (महिला एकल)

B.  2018 में रजत पदक (महिला एकल)

C. 2017 में रजत पदक (महिला एकल)

D. 2014 में कांस्य पदक (महिला एकल)

E. 2013 में कांस्य पदक (महिला एकल)

3. उबेर कप बैडमिंटन

A.  2014 नई दिल्ली में कांस्य पदक, (महिला टीम)

B.  2016 में कांस्य पदक, (महिला टीम)

4. एशियाई खेल

A. 2018 जकार्ता-पालमबांग (महिला एकल) में रजत पदक

B.  2014 इंचियोन (महिला टीम) में कांस्य पदक

5. राष्ट्रमंडल खेल

A.   2018 गोल्ड कोस्ट (मिश्रित टीम) में स्वर्ण पदक

B. 2018 गोल्ड कोस्ट (महिला एकल) में रजत पदक

C. 2014 ग्लासगो में कांस्य पदक (महिला एकल)

6. एशियाई चैंपियनशिप

A.  2014 में जिमचेन (महिला एकल) में कांस्य पदक

7. दक्षिण एशियाई खेल

A.  स्वर्ण पदक: 2016 में गुवाहाटी (महिला टीम)

B.  रजत पदक: 2016 में गुवाहाटी (महिला एकल)

8. राष्ट्रमंडल युवा खेल

A.  2011 में स्वर्ण पदक (लड़कियों का एकल)

9. एशियाई जूनियर चैंपियनशिप

A.  2012 में दक्षिण कोरिया (लड़कियों के एकल) में स्वर्ण पदक

B. 2011 लखनऊ (लड़कियों का एकल) में कांस्य पदक

C. 2011 में कांस्य पदक लखनऊ (मिश्रित टीम)

उपरोक्त पदकों के अलावा सिन्धु ने 3 Badminton World Federation (BWF) सुपरसीरीज खिताब जीते हैं जबकि 4 BWF सुपरसीरीज में उपविजेता रही है.

निष्कर्ष में कहा जा सकता है कि पीवी सिंधु भारत में बैडमिंटन सनसनी की तरह हैं. आने वाले वर्षों में हम महान बैडमिंटन खिलाड़ी के बारे में बहुत कुछ सुनेंगे.

Saturday, October 5, 2019

प्यार नहीं था तो क्या था

अगर मुझसे प्यार नहीं था तो क्यों आये थे मुझसे मिलने मेरी पसंद के कलर की शर्ट पहनके। नहीं था प्यार क्यों लाये थे साथ मेरे पसंद की चॉकलेट। नहीं था कुछ तो क्यों याद हैं तुम्हे आज भी मेरी एक -एक बात। मैं कब रूठी थी तुमसे, कब मुस्कुराई थी मैं, कब गुस्से करने का नाटक कर रही थी। क्या पहना था मैंने, मेरे खुले बाल, हाथों में पकड़ा चाबी का छल्ला। इतने सालों बाद भी तुम्हें कैसे याद हैं।
मैने बड़ी मुश्किल से माना था कि मेरा प्यार केवल एक तरफा था क्योंकि मुझे हमेशा से लगता था कि तुम भी करते हो मुझसे प्यार बस जताते नहीं। क्यों तुम सारा दिन मुझसे ही फोन पर बात करते थे जबकि कॉलेज में कुछ ही घँटे पहले मिले थे हम। क्यों हमेशा तेरे साथ वाली सीट खाली रहती थी जिस पर मेरे सिवा किसी ओर को नहीं बैठने देते थे।
तुमने तो मुझे छोड़ कर किसी ओर का हाथ थाम लिया था। और मैने अपनी चाहत को एक तरफा प्यार का नाम दे दिया था। बड़ी मुश्किल से सँभाला था खुद को जब तेरी शादी की खबर सुनी तुम्हारे ही मुँह से। उस ही दिन तुमसे दूरी बना ली थी। नहीं थी हिम्मत तुझे किसी ओर के साथ देखने की।
दिमाग ने कहा वो नहीं है तेरे लायक ,तेरे प्यार के काबिल भी नहीं है। पर दिल ने एक ना सुनी क्योंकि वो तो सिर्फ और सिर्फ तुम्हें चाहता था बेइंतहा.....। लेकिन आज इतने सालों बाद तुमसे मिली तो लगा ही नहीं के हम बरसों बाद मिले है। वहीं तुम्हारी हंसी, वही नजरों से देखना मुझे,वहीं बिन कहे मेरी बात समझ जाना।
वहीं सारी हँसी ठिठोली, आज तुम्हारे साथ इतना हँसी मानो कई सालों की हँसी बंद हो कहीं मेरे अंदर। खुश थी आज बहुत मैं जैसे पहले रहती थी तुम्हारे साथ खुश मैं। पर ये क्या कह दिया तुमनें की आज भी तुमसे बात करना अच्छा लगता हैं जैसे पहले लगता था। कहाँ चली गयी थी तुम मुझे छोड़ के कितना याद किया तुम्हें मैंने।
ये सुन जब मैंने तुमसे कहा 'मैं तुमसे बहुत प्यार करती थी और मानती थी कि तुम खुद आके मुझे कहोगें की तुम भी मुझसे प्यार करते हो, लेकिन तुमनें तो किसी और का हाथ थाम लिया था।" तो क्या करती नहीं हुआ बर्दास्त तुम्हें किसी ओर का होता देख इसलिये दूर कर दिया खुद को तुमसे, पर तेरी यादों को आज भी खुद से दूर नहीं कर पायी"।
बोलो क्या कभी एक पल के लिए भी तुम्हें मुझसे प्यार नहीं हुआ। तो तुमने कहा-"मुझे तेरे साथ रहना अच्छा लगता था , तुमसे बात करना अच्छा लगता था,आज भी कोई नहीं है जिससे में इतनी बात करूं जितनी तुमसे करता था। पर यह प्यार था या नहीं मैं समझ ही नहीं पाया। पर तुझे बहुत याद करता था"। यह कह तुम चुप होगये। और मैं यही सोचती रही के मेरा दिल सही कहता था कि वो भी मुझसे प्यार करता है। मेरा प्यार एक तरफा नहीं था।
तभी एक आवाज कानों में पड़ती है "मम्मी खाना दो भूख लगी है"। और वो हकीकत की दुनिया में आ गई ।

भगवतीचरण वर्मा जी का जीवन परिचय -- Life introduction of Bhagwati Charan Varma

पूरा नाम  -    भगवतीचरण वर्मा
जन्म - 30 अगस्त, 1903 उन्नाव ज़िला, उत्तर प्रदेश
मृत्यु - 5 अक्टूबर, 1981
कर्म भूमि - लखनऊ
कर्म-क्षेत्र -  साहित्यकार
मुख्य रचनाएँ  - 'चित्रलेखा', 'भूले बिसरे चित्र', 'सीधे सच्ची बातें', 'सबहि नचावत राम गुसाई', 'अज्ञात देश से आना', 'आज मानव का सुनहला प्रात है', 'मेरी कविताएँ', 'मेरी कहानियाँ', 'मोर्चाबन्दी', 'वसीयत'।
विषय - उपन्यास, कहानी, कविता, संस्मरण, साहित्य आलोचना, नाटक, पत्रकार।
भाषा -हिन्दी
विद्यालय  - इलाहाबाद विश्वविद्यालय
शिक्षा -   बी.ए., एल.एल.बी.
पुरस्कार-उपाधि  -  साहित्य अकादमी पुरस्कार, पद्मभूषण
प्रसिद्धि  - उपन्यासकार
नागरिकता -  भारतीय

भगवतीचरण वर्मा हिन्दी जगत के प्रमुख साहित्यकार है। इन्होंने लेखन तथा पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रमुख रूप से कार्य किया है। हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार भगवतीचरण वर्मा का जन्म 30 अगस्त, 1903 ई. में उन्नाव ज़िले, उत्तर प्रदेश के शफीपुर गाँव में हुआ था। इन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए., एल.एल.बी. की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बीच-बीच में इनके फ़िल्म तथा आकाशवाणी से भी इनके सम्बद्ध रहे हैं। बाद में यह स्वतंत्र लेखन की वृत्ति अपनाकर लखनऊ में बस गये। इन्हें राज्यसभा की मानद सदस्यता प्राप्त करायी गई। कोई उनसे सहमत हो या न हो, यह माने या न माने, कि वे मुख्यत: उपन्यासकार हैं और कविता से उनका लगाव छूट गया है। उनके अधिकांश भावक यह स्वीकार करेंगे की सचमुच ही कविता से वर्माजी का सम्बन्ध विच्छिन्न हो गया है, या हो सकता है। उनकी आत्मा का सहज स्वर कविता का है, उनका व्यक्तित्व शायराना अल्हड़पन, रंगीनी और मस्ती का सुधरा-सँवारा हुआ रूप है। वे किसी 'वाद' विशेष की परिधि में बहुत दिनों तक गिरफ़्तार नहीं रहे। यों एक-एक करके प्राय: प्रत्येक 'वाद' को उन्होंने टटोला है, देखा है, समझने-अपनाने की चेष्टा की है, पर उनकी सहज स्वातन्त्र्यप्रियता, रूमानी बैचेनी, अल्हड़पन और मस्ती, हर बार उन्हें 'वादों' की दीवारें तोड़कर बाहर निकल आने के लिए प्रेरणा देती रही और प्रेरणा के साथ-साथ उसे कार्यान्वित करने की क्षमता और शक्ति भी मिलती रही।
     
भगवतीचरण वर्मा उपदेशक नहीं हैं, न विचारक के आसन पर बैठने की आकांक्षा ही कभी उनके मन में उठी। वे जीवन भर सहजता के प्रति आस्थावान रहे, जो छायावादोत्तर हिन्दी साहित्य की एक प्रमुख विशेषता रही। एक के बाद एक 'वाद' को ठोक-बजाकर देखने के बाद ज्यों ही उन्हें विश्वास हुआ कि उसके साथ उनका सहज सम्बन्ध नहीं हो सकता, उसे छोड़कर गाते-झूमते, हँसते-हँसाते आगे बढ़े। अपने प्रति, अपने 'अहं' के प्रति उनका सहज अनुराग अक्षुण्ण बना रहा। अनेक टेढ़े-मेढ़े रास्तों से घुमाता हुआ उनका 'अहं' उन्हें अपने सहजधर्म और सहजधर्म की खोज में जाने कहाँ-कहाँ ले गया। उनका साहित्यिक जीवन कविता से भी और छायावादी कविता से आरम्भ हुआ, पर न तो वे छायावादी काव्यानुभूति के अशरीरी आधारों के प्रति आकर्षित हुए, न उसकी अतिशय मृदुलता को ही कभी अपना सके। इसी प्रकार अन्य 'वादों' में भी कभी पूरी तरह और चिरकाल के लिए अपने को बाँध नहीं पाये। अपने 'अहं' के प्रति इतने ईमानदार सदैव रहे कि ज़बरन बँधने की कोशिश नहीं की। किसी दूसरे की मान्यताओं को बिना स्वयं उन पर विश्वास किये अपनी मान्यताएँ नहीं समझा। कहीं से विचार या दर्शन उन्होंने उधार नहीं लिया। जो थे, उससे भिन्न देखने की चेष्टा कभी नहीं की।

कृतियाँ :

कवि के रूप में भगवतीचरण वर्मा के रेडियो रूपक 'महाकाल', 'कर्ण' और 'द्रोपदी'- जो 1956 ई. में 'त्रिपथगा' के नाम से एक संकलन के आकार में प्रकाशित हुए हैं, उनकी विशिष्ट कृतियाँ हैं। यद्यपि उनकी प्रसिद्ध कविता 'भैंसागाड़ी' का आधुनिक हिन्दी कविता के इतिहास में अपना महत्त्व है। मानववादी दृष्टिकोण के तत्व, जिनके आधार पर प्रगतिवादी काव्यधारा जानी-पहचानी जाने लगी, 'भैंसागाड़ी' में भली-भाँति उभर कर सामने आये थे। उनका पहला कविता संग्रह 'मधुकण' के नाम से 1932 ई. में प्रकाशित हुआ। तदनन्तर दो और काव्य संग्रह 'प्रेम संगीत' और 'मानव' निकले। इन्हें किसी 'वाद' विशेष के अंतर्गत मानना ग़लत है। रूमानी मस्ती, नियतिवाद, प्रगतिवाद, अन्तत: मानववाद इनकी विशिष्टता है।

भगवती चरण वर्मा और हिन्दी साहित्य :

हिंदी साहित्य का आधुनिक काल भारत के इतिहास के बदलते हुए स्वरूप से प्रभावित था। स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्रीयता की भावना का प्रभाव साहित्य में भी आया। भारत में औद्योगीकरण का प्रारंभ होने लगा था। आवागमन के साधनों का विकास हुआ। अंग्रेजी और पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव बढा और जीवन में बदलाव आने लगा। ईश्वर के साथ साथ मानव को समान महत्व दिया गया। भावना के साथ-साथ विचारों को पर्याप्त प्रधानता मिली। पद्य के साथ-साथ गद्य का भी विकास हुआ और छापेखाने के आते ही साहित्य के संसार में एक नई क्रांति हुई। आधुनिक हिन्दी गद्य का विकास केवल हिन्दी भाषी क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं रहा। पूरे देश में और हर प्रदेश में हिन्दी की लोकप्रियता फैली और अनेक अन्य भाषी लेखकों ने हिन्दी में साहित्य रचना करके इसके विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। भगवती चरण वर्मा जी प्रकाशित पुस्तकें नीचे श्रंखला में दी गई है।

उपन्यास :

पतन (1928),
चित्रलेखा (1934),
तीन वर्ष,
टेढे़-मेढे रास्ते (1946) - इसमें मार्क्सवाद की आलोचना की गई थी।
अपने खिलौने (1957),
भूले-बिसरे चित्र (1959),
वह फिर नहीं आई,
सामर्थ्य और सीमा (1962),
थके पाँव,
रेखा,
सीधी सच्ची बातें,
युवराज चूण्डा,
सबहिं नचावत राम गोसाईं, (1970), 
प्रश्न और मरीचिका, (1973), 
धुप्पल,
चाणक्य, 
क्या निराश हुआ जाए

कहानी-संग्रह :

मोर्चाबंदी

कविता-संग्रह :

मधुकण (1932), 
तदन्तर दो और काव्यसंग्रह- 'प्रेम-संगीत' और 'मानव' निकले।

नाटक :

वसीहत, 
रुपया तुम्हें खा गया

संस्मरण :

अतीत के गर्भ से

साहित्यालोचन :

साहित्य के सिद्घान्त, 
रुप

भगवती चरण वर्मा की प्रतिनिधि रचनाएँ :

स्मृतिकण, 
कुछ सुन लें, कुछ अपनी कह लें, 
आज शाम है बहुत उदास, 
आज मानव का, 
तुम सुधि बन-बनकर बार-बार, 
तुम मृगनयनी, 
मैं कब से ढूँढ़ रहा हूँ, 
तुम अपनी हो, जग अपना है, 
देखो-सोचो-समझो, 
पतझड़ के पीले पत्तों ने, 
कल सहसा यह सन्देश मिला, 
संकोच-भार को सह न सका, 
बस इतना--अब चलना होगा, 
आज मानव का सुनहला प्रात है, 
हम दीवानों की क्या हस्ती, 
मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम, 
अज्ञात देश से आना, 
बसन्तोत्सव, 
मानव, 
भैंसागाड़ी ।

चित्रलेखा :

चित्रलेखा न केवल भगवतीचरण वर्मा को एक उपन्यासकार के रूप में प्रतिष्ठा दिलाने वाला पहला उपन्यास है बल्कि हिन्दी के उन विरले उपन्यासों में भी गणनीय है, जिनकी लोकप्रियता बराबर काल की सीमा को लाँघती रही है।

चित्रलेखा की कथा पाप और पुण्य की समस्या पर आधारित है-पाप क्या है? उसका निवास कहाँ है ? इन प्रश्नों का उत्तर खोजने के लिए महाप्रभु रत्नांबर के दो शिष्य, श्वेतांक और विशालदेव, क्रमश: सामंत बीजगुप्त और योगी कुमारगिरि की शरण में जाते हैं। और उनके निष्कर्षों पर महाप्रभु रत्नांबर की टिप्पणी है, ‘‘संसार में पाप कुछ भी नहीं है, यह केवल मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता का दूसरा नाम है। हम न पाप करते हैं और न पुण्य करते हैं, हम केवल वह करते हैं जो हमें करना पड़ता है।’’

टेढ़े-मेढ़े रास्ते :

टेढ़े मेढ़े रास्ते सन् 1948 में प्रकाशित उनका प्रथम वृहत उपन्यास था जिसे हिन्दी साहित्य के प्रथम राजनीतिक उपन्यास का दर्जा मिला। टेढ़े-मेढ़े रास्ते को उन्होंने अपनी प्रथम शुद्ध बौद्धिक गद्य-रचना माना है। इसमें मार्क्सवाद की आलोचना की गयी है। इसके जवाब में रांगेय राघव ने 'सीधा-सादा रास्ता' लिखी थी।

पुरस्कार :

भगवतीचरण वर्मा को भूले बिसरे चित्र पर साहित्य अकादमी पुरस्कार और पद्मभूषण से सम्मानित किया गया।

Friday, October 4, 2019

जीवन का फलसफा

एक बार मैं पत्नी के साथ एक होटल में रात को ठहरा था। सुबह दस बजे मैं नाश्ता करने गया। क्योंकि नाश्ता का समय साढ़े दस बजे तक ही होता है, इसलिए होटल वालों ने बताया कि जिसे जो कुछ लेना है, वो साढ़े दस बजे तक ले ले। इसके बाद बुफे बंद कर दिया जाएगा।
कोई भी आदमी नाश्ता में क्या और कितना खा सकता है? पर क्योंकि नाश्ताबंदी का फरमान आ चुका था इसलिए मैंने देखा कि लोग फटाफट अपनी कुर्सी से उठे और कोई पूरी प्लेट फल भर कर ला रहा है, कोई चार ऑमलेट का ऑर्डर कर रहा है। कोई इडली, डोसा उठा लाया तो  एक आदमी दो-तीन गिलास जूस के उठा लाया। कोई बहुत से टोस्ट प्लेट में भर लाया और साथ में शहद, मक्खन और सरसो की सॉस भी।
मैं चुपचाप अपनी जगह पर बैठ कर ये सब देखता रहा ।
एक-दो मांएं अपने बच्चों के मुंह में खाना ठूंस रही थीं। कह रही थीं कि फटाफट खा लो, अब ये रेस्त्रां बंद हो जाएगा।
जो लोग होटल में ठहरते हैं, आमतौर पर उनके लिए नाश्ता मुफ्त होता है। मतलब होटल के किराए में सुबह का नाश्ता शामिल होता है। मैंने बहुत बार बहुत से लोगों को देखा है कि वो कोशिश करते हैं कि सुबह देर से नाश्ता करने पहुंचें और थोड़ा अधिक खा लें ताकि दोपहर के खाने का काम भी इसी से चल जाए। कई लोग इसलिए भी अधिक खा लेते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि मुफ्त का है, तो अधिक ले लेने में कोई बुराई नहीं।
कई लोग तो जानते हैं कि वो इतना नहीं खा सकते, लेकिन वो सिर्फ इसलिए जुटा लेते हैं कि कहीं कम न पड़ जाए।
दरअसल हर व्यक्ति अपनी खुराक पहचानता है। वो जानता है कि वो इतना ही खा सकता है। पर वो लालच में फंस कर ज़रूरत से अधिक जुटा लेता है।
मैं चुपचाप अपनी कुर्सी से सब देखता रहा।
साढ़े दस बज गए थे। रेस्त्रां बंद हो चुका था। लोग बैठे थे। टेबल पर खूब सारी चीजें उन्होंने जमा कर ली थीं।
पर अब उनसे खाया नहीं जा रहा था। कोई भला दो-तीन गिलास जूस कैसे पी सकता है? ऊपर से चार ऑमलेट। बहुत सारे टोस्ट। कई बच्चे मां से झगड़ रहे थे कि उन्हें अब नहीं खाना। मांएं भी खा कर और खिला कर थक चुकी थीं।
और अंत में एक-एक कर सभी लोग टेबल पर जमा नाश्ता छोड़ कर  धीरे-धीरे बाहर निकलते चले गए। मतलब इतना सारा जूस, फल, अंडा, ब्रेड सब बेकार हो गया।

पापा का पहला थप्पड़

जब कभी भी मैं अपने बचपन के दिन याद करती हूं तो पापा का पहला थप्पड़ जरूर याद आता है। पहला थप्पड़ मेरे लिए एक बहुत बड़ी सीख भी बना। जब मैं 4 साल की थी तब मैं पहली बार बड़ी बहन के साथ स्कूल गयी। मेरी बहन जब स्कूल जाती थी तो मेरा भी मन होता की मैं भी स्कूल जाऊं। छोटी और ज्यादा शरारती होने के कारण घरवाले मुझे उसके साथ स्कूल नहीं भेजते थे। मेरे अंदर बहुत जिज्ञासा रहती थी स्कूल देखने की। जब बड़ी बहन घर आकर आपना होमवर्क करती तो मैं उनके पास बैठ कर लिखने के लिए जिद करती थी। उन्होंने स्कूल जाने से पहले मुझे काफी कुछ सिखा दिया था। फिर वो दिन भी आया जब मुझे भी अपनी बहन के साथ स्कूल भेजा गया। स्कूल में देखा कि बहुत सारे बच्चे हैं। इतने में एक घण्टी बजी। सारे बच्चे एक ग्राउंड की तरफ भागने लगे। हम भी वहां चले गए। सारे लाइन बना कर आंखें बंद करके और हाथ जोड़कर खड़े हो गये। मुझे भी ऐसे ही खड़ा कर दिया गया। सारे बच्चे प्रार्थना करने लगे। मैंने बीच मैं एक आंख खोली और देखा कि सब वैसे ही खड़े हैं। मैंने झट से आंख बंद की और सीधी खड़ी हो गई। उसके बाद दीदी मुझे मेरी क्लास में छोड़ने गई। वहां मेरी उम्र के बहुत सारे बच्चे थे। उनके बीच मुझे भी बैठा दिया। उसके बाद क्लास टीचर ने मुझसे मेरा नाम पूछा और बाकी बच्चों से मेरा इंट्रोडक्शन करवाया और हमें फलों और सब्जियों के नाम याद करवाये। बीच-बीच में दीदी आकर मुझे देख भी जाती थी कि कहीं मैं रो तो नहीं रही हूं। खेलकूद में पता नहीं लगा
कब स्कूल का टाइम पूरा हो गया। उसके बाद मैं दीदी के साथ घर चली गई। मेरे मम्मी पापा भी इंतज़ार कर रहे थे। उन्होंने पूछा -आज कैसा रहा मेरा पहला दिन तो उनको मैं सब डिटेल्स बताती रही। फिर थोड़ी देर बाद पापा बोले-चलो बेटा, आज तुम्हें तुम्हारा नाम लिखना सिखाते हैं। अब तुम स्कूल भी जाने लगी हो तो अपना नाम लिखना भी सीख लो। पापा ने मेरा नाम कॉपी पर लिखा और मुझे बताया कि कैसे लिखना है। मैं बार-बार नाम लिखने मैं गलती कर रही थी। पापा के बहुत बार बताने के बाद भी मैं गलत लिखती जा रही थी। अंत में पापा ने एक चांटा रसीद कर दिया। थप्पड़ लगते ही मैंने नाम झट से सही लिख दिया। पापा का वह पहला थप्पड़ आज भी कोई गलती करने से रोकता है। इस थप्पड़ ने स्कूल का वो पहला दिन हमेशा के लिए यादगार बना दिया।

Thursday, October 3, 2019

ईर्ष्या और हमारा जीवन

एक बार एक महात्मा ने अपने शिष्यों से कहा कि वे कल प्रवचन में अपने साथ एक थैली में कुछ आलू. भरकर लाएं। साथ ही निर्देश भी दिया कि उन आलुओं पर उस व्यक्ति का नाम लिखा होना चाहिए जिनसे वे ईर्ष्या करते हैं। अगले दिन किसी शिष्य ने चार आलू, किसी ने छह तो किसी ने आठ आलू लाए। प्रत्येक आलू पर उस व्यक्ति का नाम लिखा था जिससे वे नफरत करते थे।

अब महात्मा जी ने कहा कि अगले सात दिनों तक आपलोग ये आलू हमेशा अपने साथ रखें। शिष्यों को कुछ समझ में नहीं आया कि महात्मा जी क्या चाहते हैं, लेकिन सबने आदेश का पालन किया। दो-तीन दिनों के बाद ही शिष्यों को कष्ट होने लगा। जिनके पास ज्यादा आलू थे, वे बड़े कष्ट में थे। किसी तरह उन्होंने सात दिन बिताए और महात्मा के पास पहुंचे। महात्मा ने कहा, ‘अब अपनी-अपनी थैलियां निकाल कर रख दें।’ शिष्यों ने चैन की सांस ली। महात्मा जी ने विगत सात दिनों का अनुभव पूछा। शिष्यों ने अपने कष्टों का विवरण दिया। उन्होंने आलुओं की बदबू से होने वाली परेशानी के बारे में बताया। सभी ने कहा कि अब बड़ा हल्का महसूस हो रहा है।…

महात्मा ने कहा, ‘जब मात्र सात दिनों में ही आपको ये आलू बोझ लगने लगे, तब सोचिए कि आप जिन व्यक्तियों से ईर्ष्या या नफरत करते हैं, आपके मन पर उनका कितना बड़ा बोझ रहता होगा। और उसे आप जिंदगी भर ढोते रहते हैं। सोचिए, ईर्ष्या के बोझ से आपके मन और दिमाग की क्या हालत होती होगी?

 ईर्ष्या के अनावश्यक बोझ के कारण आपलोगों के मन में भी बदबू भर जाती है, ठीक उन आलुओं की तरह। इसलिए अपने मन से इन भावनाओं को निकाल दो। यदि किसी से प्यार नहीं कर सकते तो कम से कम नफरत मत करो। आपका मन स्वच्छ, निर्मल और हल्का रहेगा।

अपने शहर में

वर्षों बाद पुणे जा रही हूं. मेरे बचपन और किशोरावस्था का शहर पुणे, जो तब पूना कहलाता था. इतने वर्ष हो गए पूना छोड़े, पर आज भी वह शहर बहुत अपना लगता है. ढेर सारी मधुर स्मृतियां जुड़ी हैं उस शहर से. गाड़ी में बैठते ही मैं कल्पना लोक में पहुंच गई हूं. यादों की यही तो ख़ासियत है कि वह दुनियादारी के नियमों की मोहताज नहीं. न टिकट की ज़रूरत, न किसी की इजाज़त की. जब मर्ज़ी और जहां मर्ज़ी पहुंच जाती है वह.
पिताजी की नौकरी ऐसी थी कि अक्सर तबादला होता रहता था. एक बार जब पुणे तबादला हुआ, तो उन्हें वह शहर, वहां का मौसम इतना पसंद आया कि उन्होंने पुणे में ही अपना घर बनवा लिया और रिटायरमेंट के बाद वहीं बस गए. अब बड़े भइया-भाभी भी वहीं रहते हैं. दीदी का ब्याह एक आर्मी ऑफिसर से हुआ, सो आज यहां, तो कल वहां घूमती ही रहती हैं. घर में मैं सबसे छोटी थी. समय आने पर मेरी शादी मेरठ के एक संयुक्त धनी परिवार में हुई. इनका अपना कारोबार है. यहां हर रिश्ता दौलत से तौला जाता है. व्यक्ति का सम्मान उसके बैंक बैलेंस के अनुसार किया जाता है. मेरे मायके के लोग अधिक शिक्षित व संभ्रान्त होते हुए भी इनसे कम हैं. इस परिवार की अपनी परंपराएं हैं, जिसके अनुसार स्त्री घर के भीतर ही शोभा पाती है. ख़ूब ऐशो-आराम, ख़ूब ठाठ-बाट हैं, लेकिन नियम-क़ानून भी बहुत हैं. गहने-कपड़ों का ढेर है, क्योंकि इसी से तो लोगों को पारिवारिक समृद्धि का पता चलता है, लेकिन घर की स्त्रियों की इच्छाओं की कोई क़ीमत नहीं, उनसे राय-मशवरा करने की ज़रूरत कोई महसूस नहीं करता.
हमारे शास्त्रों में स्त्री को देवी का दर्जा प्राप्त है. देवी की मूर्ति को अपनी सामर्थ्य के अनुसार अच्छी तरह सजाया जाता है, असली हीरे-जवाहरात तक पहनाए जाते हैं, पर उसका स्थान घर के भीतर का कोई कोना ही होता है, जहां वह ख़ामोश खड़ी रहती है. ठीक यही स्थिति इस घर में स्त्रियों की भी है.
पति शशांक अपने कारोबार में व्यस्त रहते हैं, पर खाली होने पर भी उनके जीवन में मेरे लिए कोई जगह नहीं है. संयुक्त परिवार है, तो कुछ समय तो कट जाता है, पर समय काटना और जीना दो अलग-अलग बातें हैं न! कभी नहीं सोचा था कि विवाहित जीवन में और भरे-पूरे परिवार में भी इस कदर अकेलापन महसूस हो सकता है. पति का शुष्क व्यवहार पूरे जीवन को रेगिस्तान में बदल सकता है. शरीर की सारी क्रियाएं चलती हैं, फिर भी भीतर ही भीतर सब कुछ मर जाए, उस स्थिति के लिए कौन-सा शब्द है शब्दकोश में? डॉक्टर इस रोग का इलाज क्यों नहीं खोजते?
बीच में एक ही बार आ पाई थी पुणे पापा के स्वर्गवास के बाद. मां तो मेरी शादी से पहले ही इस दुनिया से चली गई थीं. उस माहौल में घर से बाहर निकलना नहीं हो पाया, ज़्यादा किसी से बात भी नहीं हुई. अपनी बेटी की शादी में पूरे परिवार को सादर निमंत्रित करने भइया और भाभी स्वयं आए थे, बाकी सबने तो व्यस्तता का बहाना बना दिया, पर मैं ख़ुश थी कि मुझे जाने की अनुमति मिल गई. मेरे लिए यही बहुत था. अब कल्पना लोक से बाहर आने का व़क्त हो गया है, क्योंकि मैं अपने शहर पहुुच चुकी हूं.
अपने शहर में होने की ख़ुशी में सुबह जल्दी ही नींद खुल गई है. कुछ अजीब-सी मनःस्थिति है. कुछ-कुछ स्वप्न-सी अवस्था ‘क्या मैं सचमुच पुणे पहुंच गई हूं?’ आकाश में बादल हैं और हवा भी चल रही है. मन में उमंग है. ये सब मैं सोकर नहीं गंवाना चाहती, इसलिए जूते पहनकर बाहर निकल आई हूं. स्वयं को एक ऐसे पंछी की तरह महसूस कर रही हूं, जिसे थोड़े दिनों के लिए पिंजरे से बाहर उन्मुक्त उड़ने की आज़ादी मिल गई है. यूं पुणे शहर बदल गया है, पर मेरे आसपास जाने-पहचाने रास्ते हैं, पुराने लैंडमार्क हैं. हमारे घर की लंबी-सी सड़क के बाद दाएं मुड़ते ही पार्क है और उसके बाद पहली कोठी चोपड़ा अंकल की है. उनका कारों का अपना शोरूम है. उनके चार बेटों में सबसे बड़ा बेटा स्कूल में भइया के संग पढ़ता था. इन दोनों की गहरी दोस्ती थी, इसी कारण मम्मी-पापा का चोपड़ा अंकल और आंटी से परिचय हुआ था. आना-जाना शुरू हुआ, जिसने पारिवारिक मैत्री का रूप ले लिया. तीसरे नंबर का बेटा माधव मेरे स्कूल में था, मुझसे दो साल सीनियर. तब शहर इतना फैला नहीं था. स्कूल की अपनी बसें नहीं थीं और हम पैदल ही स्कूल आया-जाया करते थे. हां, माधव के पास अपनी ख़ुद की साइकिल थी. मुझे गाने का शौक़ था और मैंने एक विषय संगीत ले रखा था. स्कूल के कार्यक्रमों में मेरा कोई गीत होता, जिसकी रिहर्सल अथवा कार्यक्रमवाले दिन मुझे देर तक रुकना पड़ता, तो माधव लाइब्रेरी में बैठकर पढ़ता रहता और मुझे संग लेकर लौटता, ख़ासकर सर्दियों में. पुणे में वैसे बहुत ज़्यादा ठंड तो नहीं पड़ती थी, पर फिर भी शाम जल्दी घिर आती थी. माधव की उपस्थिति निश्‍चय ही मुझे सुरक्षा का एहसास दिलाती थी.
चोपड़ा अंकल के गेट तक जाकर मैं रुक गई हूं. यह तो पता है कि अंकल नहीं रहे, लेकिन आंटी से मिलने का मन हो आया है. सूरज अभी अपनी आरामगाह से निकला नहीं है या फिर बादलों की वजह से रोशनी कम है, पता नहीं. मैं इसी पसोपेश में खड़ी हूं कि अभी भीतर जाना ठीक है या नहीं कि तभी उनके घर में भीतर का दरवाज़ा बंदकर कोई बाहर आता दिखाई दिया. पास आने पर ही मैंने पहचाना, “माधव! पहचाना मुझे?”
“हां वसु! मुझे पता था, तुम आनेवाली हो. कल रात ही आई हो ना. अभी तुम न आती, तो मैं शाम को तुमसे मिलने आता ही.” उसने बड़े उत्साह से कहा.
‘वसु!’ कितना अपनत्व है इस संबोधन में. यह शहर अपना है, अपने लोगों का है और इसीलिए इस शहर के लिए मैं वसु हूं, मेरठ जाकर वसुंधरा बन जाती हूं.
लॉन में रखी कुर्सियों की ओर इशारा करते हुए माधव ने कहा, “मां की तो अभी आधा घंटा पूजा चलेगी और बाकी लोग सो रहे हैं, तब तक हम यहीं ताज़ी हवा में बैठते हैं. अच्छा है तुम मिल गई. दो मिनट बाद आती, तो मैं भी सैर पर निकल चुका होता.” दो मिनट मौन छाया रहा. मुलाक़ात होती रहती है, तो बातों के सूत्र भी जुड़ते चले जाते हैं. इतने सालों के बाद मिलने पर नए सूत्र तलाशने पड़ते हैं. क्या बोलूं, कुछ समझ नहीं आया, तो बादलों की ओर देखते हुए मैंने कहा- “लगता है बारिश होगी…”
“अच्छा है न! तुम्हें तो बारिश में भीगना बहुत पसंद है ना.”
मैंने हैरानी से उसकी तरफ़ देखा, पर कुछ अधिक देर तक ही. अपनी हैरानी में शिष्टाचार की सीमा भी लांघ गई शायद. इसे याद है अभी तक यह बात? याद है वह दिन? अच्छा मौसम देखकर हम सब पिकनिक के मूड में आ गए थे और दोनों परिवार चल पड़े थे पिकनिक मनाने. कहीं दूर नहीं, पास ही के एक गार्डन में. थोड़ी देर में ही आसमान से बूंदें गिरने लगीं. पहले नन्हीं-नन्हीं, फिर मोटी-मोटी. जब सब लोग इधर-उधर छत खोज रहे थे, तो मैं हथेलियां और चेहरा ऊपर उठाए बारिश का आनंद ले रही थी, जब तक कि मां ने आवाज़ लगाकर छप्पर के नीचे नहीं बुला लिया. मेरी ज़िंदगी कितनी बदल गई है. मेरे पति शशांक को यह सब बिल्कुल नहीं पसंद. कोई मुझे देखे न, इसलिए मैं बारिश का आनंद लेने अपने तिमंज़िले घर की छत पर चली जाती हूं, तब भी ग़ुस्सा हो जाते हैं.
“क्या सड़कछाप लोगों की तरह वाहियात शौक़ हैं तुम्हारे.” उनका कथन है.
उन्हें क्या पता, ये छोटे-छोटे शौक़ ज़िंदगी को कितना जीवंत बना देते हैं.
आज शाम को ही सगाई की रस्म है. मैं तैयार होकर पंडाल में आ बैठी हूं, ताकि अरसे बाद मिल रहे परिचितों से इत्मीनान से बातचीत कर सकूं कि तभी माधव आता दिखाई पड़ा है. भइया ने चोपड़ा परिवार के सभी सदस्यों को कोई न कोई काम सौंप रखा है. माधव को शायद पंडाल की ज़िम्मेदारी मिली है. मुझे बैठा देख वह झट से डीजे की तरफ़ मुड़ गया और वहां से लौटकर बोला, “तुम्हारी पसंद के गाने उन्हें लिखकर दे आया हूं. तुम बैठकर सुनो.” मुझे विश्‍वास नहीं होता कि इतने सालों बाद भी उसे मेरी पसंद के गाने याद होंगे, पर शीघ्र ही हेमंत कुमार साहब की आवाज़ फ़िज़ा में गूंज गई.
“तुम्हें अभी तक याद हैं मेरी पसंद के गाने?” मैंने आश्‍चर्यपूर्वक पूछा.
वह कुछ देर तक सोचता रहा फिर बोला, “मुझे तो बहुत कुछ…” और फिर वाक्य बीच में ही छोड़ दिया, पर अधूरा रह गया वाक्य अधिक अर्थपूर्ण हो गया है. सच है, कभी-कभी ख़ामोशी शब्दों से अधिक बोल जाती है और एक के बाद एक गाने बजने लगे सब मेरी पसंद के. गीत-संगीत मुझे मां से विरासत में मिला है. बस, गानों की पसंद अलग-अलग है. मां पंजाबी टप्पे, शादी-ब्याह के गीत, भजन आदि को शौक़ से गाती थीं और मैं नई क़िस्म के गाने पसंद करती थी.
“याद है तुम्हें, तुम्हारे भइया की शादी में तुम्हारे काले सूट पर दही वड़े का पूरा डोंगा ही उलट गया था. तुम्हें तो रोना आ गया था. तब मैंने नई-नई कार चलानी सीखी थी और तुम्हें कपड़े बदलवाने घर ले आया था.”
याद कैसे नहीं होगा. सारा दृश्य अंकित है मानसपटल पर आज तक. मैं नौंवी कक्षा में थी. जब माधव स्कूल पासकर पिलानी चला गया था और उसके बाद अमेरिका ऑटोमोबाइल की ट्रेनिंग लेने, ताकि कारों के बिज़नेस में नई तकनीक काम में लाई जा सके. पर भइया की शादी गर्मियों की छुट्टी में हुई थी, इसलिए माधव भी उस समय घर पर आया हुआ था.
तब कुंआरी लड़कियां आज की तरह बनाव- शृंगार नहीं करती थीं. कपड़ों पर बेहिसाब पैसा ख़र्च नहीं किया जाता था. दीदी ने मेरे लिए घर पर ही काले क्रेप का सूट सिलकर उसके गले और दुपट्टे के चारों ओर स़फेद सीपियां लगा दी थीं. मेरे लिए वही नायाब ड्रेस बन गई थी. पहनकर बाहर निकली ही थी कि सामने माधव पड़ गया और कुछ देर खड़ा देखता ही रह गया. मुंह से कुछ न बोलकर भी उसकी आंखें हज़ारों कॉम्प्लीमेंट्स दे गईं. बारात में भी मैंने उसे अपनी ओर देखते पाया. विवाह स्थल पर बारात पहुंचे काफ़ी समय हो गया था और ज़्यादातर लोग खाना खाकर लौट भी चुके थे. रस्में शुरू होनेवाली थीं और अभी परिवारवालों का भोजन नहीं निपटा था. उसी अफ़रा-तफ़री में बैरे की असावधानी वश दही वड़े से भरा डोंगा मेरे कपड़ों पर उलट गया. अच्छा था कि विवाह स्थल हमारे घर से अधिक दूर नहीं था, लेकिन घर के सभी लोग व्यस्त थे, तो चोपड़ा अंकल ने माधव से कहा कि कपड़े बदलवाने मुझे घर ले जाए.
‘कितनी अजीब-सी उम्र होती है किशोरावस्था की. मासूमियत की दीवार भेद एक अनोखी नई दुनिया भीतर घुसपैठ करने लगती है. भावनाएं डगमगाने लगती हैं. कोई अच्छा लगने लगता है अकारण ही. जी चाहता है वह तारीफ़ करे, ध्यान दे आपकी तरफ़. शशांक के साथ इतने बरस रहकर भी मन के तार उस तरह कभी नहीं झनझनाए, जैसे कभी माधव को देखकर झनझनाया करते थे, पर उसने इतने वर्षों बाद भी क्यों याद रखा यह सब?’ इसका उत्तर तो वही दे सकता है.
हम पुरानी यादें ताज़ा कर रहे हैं. कुछ भूली बातें भी अनायास याद आ रही हैं, आते ही चली जा रही हैं. इतने में माधव की पत्नी रेणुका आ गई है. फूलों की महक लिए खिला-खिला-सा चेहरा और चेहरे पर बौद्धिकता की स्पष्ट छाप. मैं पहली बार उससे मिल रही हूं. “कॉलेज में मनोविज्ञान पढ़ाती है.” माधव ने सगर्व उसका परिचय दिया.
माधव के बाकी भाई तो बीए कंप्लीट करते ही पिता का हाथ बंटाने लगे थे, पर माधव अमेरिका से उच्च शिक्षा प्राप्त करके आया था, इसलिए उसके लिए लड़की भी शिक्षित ढूंढ़ी गई. “वैसे तो मुझे नौकरी करने की कोई आर्थिक ज़रूरत नहीं थी, लेकिन मनोविज्ञान पढ़ाना मेरा शौक़ है. माधव ने न स़िर्फ ख़ुद अनुमति दी, वरन् मम्मी-पापा को भी राज़ी करवा लिया.” रेणुका ने गर्व एवं नेह मिश्रित भाव से उसकी ओर देखते हुए बताया.
ज़िंदगी का दरिया न स़िर्फ अपनी गति से चलता है, बल्कि वह अपनी राह भी स्वयं बनाता है. हमें ही उसके अनुरूप ढलते रहना होता है. उस पर मैं तो किसी को दोष भी नहीं दे सकती, समय को भी नहीं. हमारी दोस्ती इस बिंदु तक पहुंची ही नहीं थी, जहां वादे किए जाते हैं. प्रीत-प्यार की, स्त्री-पुरुष संबंधों की कोई समझ ही नहीं थी तब मुझमें. वह अच्छा लगता था बस और जब तक यह बात समझ में आई, वह जा चुका था. माधव मुझसे कुछ बड़ा था. हो सकता है उसके मन ने कुछ अधिक महसूस किया हो. ख़ैर जो भी था, उसके मन के भीतर ही था. उसने कभी स्पष्ट रूप से कुछ कहा नहीं. हर उम्र का अपना एक सच होता है. वह हमारे किशोरवय का सच था, जब माधव और मेरी मैत्री थी. वह मुझे बहुत अपना-सा लगता था. आज का सच यह है कि हम दोनों को अपने-अपने परिवार से निष्ठा निभानी है- और बुझे मन से भी नहीं, बल्कि ख़ुशी-ख़ुशी, क्योंकि अब हम किशोरवय नहीं रहे, परिपक्व हो चुके हैं. कविगण कहते हैं कि ‘कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता’ इस आधे-अधूरे मिले जहान को हमें स्वयं पूर्ण करना होता है. रेणुका ने अपनी अस्मिता तलाश ली है. ठीक है, उसे अपने पति का सहयोग प्राप्त है, पर मैं भी इतनी अक्षम तो नहीं कि ज़िंदगी से हार मान लूं. मेरे पास मेरा संगीत है, अपनी पहचान बनाने के लिए. घर पर अभ्यास करने की इजाज़त न मिली, तो उसके लिए किसी संगीत विद्यालय जा सकती हूं.
पिछले दस दिनों में कितना कुछ संजो लिया है मैंने. हालांकि देखा जाए, तो हुआ कुछ भी नहीं, पर मैं ख़ुश हूं, बहुत ख़ुश! क्या नाम दूं अपनी इस ख़ुशी को? क्या होती है ख़ुशी की असली परिभाषा? ख़ुशियों के छोटे-छोटे असंख्य क्षण होते हैं, जो मिलकर जीवन को अर्थ देते हैं. मेरी किशोरवय का एक टुकड़ा किसी ने अपनी स्मृति में संजो रखा है एक फ्रेम जड़ी तस्वीर की मानिंद, यही काफ़ी है मेरा खोया आत्मविश्‍वास लौटाने के लिए और मैं माधव की याद को दीये की लौ-सा मन में संजो आई हूं. आश्‍चर्य! यह लौ तपिश नहीं दे रही, ठंडक पहुंचा रही है मन को. सुकून दे रही है, आगे की राह दिखा रही है.

Wednesday, October 2, 2019

मूर्ख कौन?

किसी गांव में एक सेठ रहता था. उसका एक ही बेटा था, जो व्यापार के काम से परदेस गया हुआ था. सेठ की बहू एक दिन कुएँ पर पानी भरने गई. घड़ा जब भर गया तो उसे उठाकर कुएँ के मुंडेर पर रख दिया और अपना हाथ-मुँह धोने लगी. तभी कहीं से चार राहगीर वहाँ आ पहुँचे. एक राहगीर बोला, "बहन, मैं बहुत प्यासा हूँ. क्या मुझे पानी पिला दोगी?"
सेठ की बहू को पानी पिलाने में थोड़ी झिझक महसूस हुई, क्योंकि वह उस समय कम कपड़े पहने हुए थी. उसके पास लोटा या गिलास भी नहीं था जिससे वह पानी पिला देती. इसी कारण वहाँ उन राहगीरों को पानी पिलाना उसे ठीक नहीं लगा.
बहू ने उससे पूछा, "आप कौन हैं?"
राहगीर ने कहा, "मैं एक यात्री हूँ"
बहू बोली, "यात्री तो संसार में केवल दो ही होते हैं, आप उन दोनों में से कौन हैं? अगर आपने मेरे इस सवाल का सही जवाब दे दिया तो मैं आपको पानी पिला दूंगी. नहीं तो मैं पानी नहीं पिलाऊंगी."
बेचारा राहगीर उसकी बात का कोई जवाब नहीं दे पाया.
तभी दूसरे राहगीर ने पानी पिलाने की विनती की.
बहू ने दूसरे राहगीर से पूछा, "अच्छा तो आप बताइए कि आप कौन हैं?"
दूसरा राहगीर तुरंत बोल उठा, "मैं तो एक गरीब आदमी हूँ."
सेठ की बहू बोली, "भइया, गरीब तो केवल दो ही होते हैं. आप उनमें से कौन हैं?"
प्रश्न सुनकर दूसरा राहगीर चकरा गया. उसको कोई जवाब नहीं सूझा तो वह चुपचाप हट गया.
तीसरा राहगीर बोला, "बहन, मुझे बहुत प्यास लगी है. ईश्वर के लिए तुम मुझे पानी पिला दो"
बहू ने पूछा, "अब आप कौन हैं?"
तीसरा राहगीर बोला, "बहन, मैं तो एक अनपढ़ गंवार हूँ."
यह सुनकर बहू बोली, "अरे भई, अनपढ़ गंवार तो इस संसार में बस दो ही होते हैं. आप उनमें से कौन हैं?'
बेचारा तीसरा राहगीर भी कुछ बोल नहीं पाया.
अंत में चौथा राहगीह आगे आया और बोला, "बहन, मेहरबानी करके मुझे पानी पिला दें. प्यासे को पानी पिलाना तो बड़े पुण्य का काम होता है."
सेठ की बहू बड़ी ही चतुर और होशियार थी, उसने चौथे राहगीर से पूछा, "आप कौन हैं?"
वह राहगीर अपनी खीज छिपाते हुए बोला, "मैं तो..बहन बड़ा ही मूर्ख हूँ."
बहू ने कहा, "मूर्ख तो संसार में केवल दो ही होते हैं. आप उनमें से कौन हैं?"
वह बेचारा भी उसके प्रश्न का उत्तर नहीं दे सका. चारों पानी पिए बगैर ही वहाँ से जाने लगे तो बहू बोली, "यहाँ से थोड़ी ही दूर पर मेरा घर है. आप लोग कृपया वहीं चलिए. मैं आप लोगों को पानी पिला दूंगी"
चारों राहगीर उसके घर की तरफ चल पड़े. बहू ने इसी बीच पानी का घड़ा उठाया और छोटे रास्ते से अपने घर पहुँच गई. उसने घड़ा रख दिया और अपने कपड़े ठीक तरह से पहन लिए.
इतने में वे चारों राहगीर उसके घर पहुँच गए. बहू ने उन सभी को गुड़ दिया और पानी पिलाया. पानी पीने के बाद वे राहगीर अपनी राह पर चल पड़े.
सेठ उस समय घर में एक तरफ बैठा यह सब देख रहा था. उसे बड़ा दुःख हुआ. वह सोचने लगा, इसका पति तो व्यापार करने के लिए परदेस गया है, और यह उसकी गैर हाजिरी में पराए मर्दों को घर बुलाती है. उनके साथ हँसती बोलती है. इसे तो मेरा भी लिहाज नहीं है. यह सब देख अगर मैं चुप रह गया तो आगे से इसकी हिम्मत और बढ़ जाएगी. मेरे सामने इसे किसी से बोलते बतियाते शर्म नहीं आती तो मेरे पीछे न जाने क्या-क्या करती होगी. फिर एक बात यह भी है कि बीमारी कोई अपने आप ठीक नहीं होती. उसके लिए वैद्य के पास जाना पड़ता है. क्यों न इसका फैसला राजा पर ही छोड़ दूं. यही सोचता वह सीधा राजा के पास जा पहुँचा और अपनी परेशानी बताई. सेठ की सारी बातें सुनकर राजा ने उसी वक्त बहू को बुलाने के लिए सिपाही बुलवा भेजे और उनसे कहा, "तुरंत सेठ की बहू को राज सभा में उपस्थित किया जाए."
राजा के सिपाहियों को अपने घर पर आया देख उस सेठ की पत्नी ने अपनी बहू से पूछा, "क्या बात है बहू रानी? क्या तुम्हारी किसी से कहा-सुनी हो गई थी जो उसकी शिकायत पर राजा ने तुम्हें बुलाने के लिए सिपाही भेज दिए?"
बहू ने सास की चिंता को दूर करते हुए कहा, "नहीं सासू मां, मेरी किसी से कोई कहा-सुनी नहीं हुई है. आप जरा भी फिक्र न करें."
सास को आश्वस्त कर वह सिपाहियों से बोली, "तुम पहले अपने राजा से यह पूछकर आओ कि उन्होंने मुझे किस रूप में बुलाया है. बहन, बेटी या फिर बहू के रुप में? किस रूप में में उनकी राजसभा में मैं आऊँ?"
बहू की बात सुन सिपाही वापस चले गए. उन्होंने राजा को सारी बातें बताई. राजा ने तुरंत आदेश दिया कि पालकी लेकर जाओ और कहना कि उसे बहू के रूप में बुलाया गया है.
सिपाहियों ने राजा की आज्ञा के अनुसार जाकर सेठ की बहू से कहा, "राजा ने आपको बहू के रूप में आने के ले पालकी भेजी है."
बहू उसी समय पालकी में बैठकर राज सभा में जा पहुँची.
राजा ने बहू से पूछा, "तुम दूसरे पुरूषों को घर क्यों बुला लाईं, जबकि तुम्हारा पति घर पर नहीं है?"
बहू बोली, "महाराज, मैंने तो केवल कर्तव्य का पालन किया. प्यासे पथिकों को पानी पिलाना कोई  अपराध नहीं है. यह हर गृहिणी का कर्तव्य है. जब मैं कुएँ पर पानी भरने गई थी, तब तन पर मेरे कपड़े अजनबियों के सम्मुख उपस्थित होने के अनुरूप नहीं थे. इसी कारण उन राहगीरों को कुएँ पर पानी नहीं पिलाया. उन्हें बड़ी प्यास लगी थी और मैं उन्हें पानी पिलाना चाहती थी. इसीलिए उनसे मैंने मुश्किल प्रश्न पूछे और जब वे उनका उत्तर नहीं दे पाए तो उन्हें घर बुला लाई. घर पहुँचकर ही उन्हें पानी पिलाना उचित था."
राजा को बहू की बात ठीक लगी. राजा को उन प्रश्नों के बारे में जानने की बड़ी उत्सुकता हुई जो बहू ने चारों राहगीरों से पूछे थे.
राजा ने सेठ की बहू से कहा, "भला मैं भी तो सुनूं कि वे कौन से प्रश्न थे जिनका उत्तर वे लोग नहीं दे पाए?"
बहू ने तब वे सभी प्रश्न दुहरा दिए. बहू के प्रश्न सुन राजा और सभासद चकित रह गए. फिर राजा ने उससे कहा, "तुम खुद ही इन प्रश्नों के उत्तर दो. हम अब तुमसे यह जानना चाहते हैं."
बहू बोली, "महाराज, मेरी दृष्टि में पहले प्रश्न का उत्तर है कि संसार में सिर्फ दो ही यात्री हैं–सूर्य और चंद्रमा. मेरे दूसरे प्रश्न का उत्तर है कि बहू और गाय इस पृथ्वी पर ऐसे दो प्राणी हैं जो गरीब हैं. अब मैं तीसरे प्रश्न का उत्तर सुनाती हूं. महाराज, हर इंसान के साथ हमेशा अनपढ़ गंवारों की तरह जो हमेशा चलते रहते हैं वे हैं–भोजन और पानी. चौथे आदमी ने कहा था कि वह मूर्ख है, और जब मैंने उससे पूछा कि मूर्ख तो दो ही होते हैं, तुम उनमें से कौन से मूर्ख हो तो वह उत्तर नहीं दे पाया." इतना कहकर वह चुप हो गई.
राजा ने बड़े आश्चर्य से पूछा, "क्या तुम्हारी नजर में इस संसार में सिर्फ दो ही मूर्ख हैं?"
"हाँ, महाराज, इस घड़ी, इस समय मेरी नजर में सिर्फ दो ही मूर्ख हैं."
राजा ने कहा, "तुरंत बतलाओ कि वे दो मूर्ख कौन हैं."
इस पर बहू बोली, "महाराज, मेरी जान बख्श दी जाए तो मैं इसका उत्तर दूं."
राजा को बड़ी उत्सुकता थी यह जानने की कि वे दो मूर्ख कौन हैं. सो, उसने तुरंत बहू से कह दिया, "तुम निःसंकोच होकर कहो. हम वचन देते हैं तुम्हें कोई सज़ा नहीं दी जाएगी."
बहू बोली, "महाराज, मेरे सामने इस वक्त बस दो ही मूर्ख हैं." फिर अपने ससुर की ओर हाथ जोड़कर कहने लगी, "पहले मूर्ख तो मेरे ससुर जी हैं जो पूरी बात जाने बिना ही अपनी बहू की शिकायत राजदरबार में की. अगर इन्हें शक हुआ ही था तो यह पहले मुझसे पूछ तो लेते, मैं खुद ही इन्हें सारी बातें बता देती. इस तरह घर-परिवार की बेइज्जती तो नहीं होती."
ससुर को अपनी गलती का अहसास हुआ. उसने बहू से माफ़ी मांगी. बहू चुप रही.
राजा ने तब पूछा, "और दूसरा मूर्ख कौन है?"
बहू ने कहा, "दूसरा मूर्ख खुद इस राज्य का राजा है जिसने अपनी बहू की मान-मर्यादा का जरा भी खयाल नहीं किया और सोचे-समझे बिना ही बहू को भरी राजसभा में बुलवा लिया."
बहू की बात सुनकर राजा पहले तो क्रोध से आग बबूला हो गया, परंतु तभी सारी बातें उसकी समझ में आ गईं. समझ में आने पर राजा ने बहू को उसकी समझदारी और चतुराई की सराहना करते हुए उसे ढेर सारे पुरस्कार देकर सम्मान सहित विदा किया.

बहू-बेटी

घर क्या था, अच्छाखासा कुरुक्षेत्र का मैदान बना हुआ था. सुबह की ट्र्र्रेन से बेटी और दामाद आए थे. सारा सामान बिखरा हुआ था. दयावती ने महरी से कितना कहा था कि मेहमान आ रहे हैं, जरा जल्दी आ कर घर साफ कर जाए. 10 बज रहे थे, पर महरी का कुछ पता नहीं था. झाड़ूबुहारु तो दूर, अभी तो रात भर के बरतन भी पड़े थे. 2-2 बार चाय बन चुकी थी, नाश्ता कब निबटेगा, कुछ पता नहीं था.
रमेश तो एक प्याला चाय पी कर ही दफ्तर चला गया था. उस की पत्नी जया अपनी 3 महीने की बच्ची को गोद में लिए बैठी थी. उस को रात भर तंग किया था उस बच्ची ने, और वह अभी भी सोने का नाम नहीं ले रही थी, जहां गोद से अलग किया नहीं कि रोने लगती थी.
इधर कमलनाथ हैं कि अवकाश प्राप्त करने के बाद से बरताव ऐसा हो गया है जैसे कहीं के लाटसाहब हो गए हों. सब काम समय पर और एकदम ठीक होना चाहिए. कहीं कोई कमी नहीं रहनी चाहिए. उन के घर के काम में मदद करने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था.
गंदे बरतनों को देख कर दयावती खीज ही रही थी कि रश्मि बेटी ने आ कर मां को बांहों में प्यार से कस ही नहीं लिया बल्कि अपने पुराने स्कूली अंदाज से उस के गालों पर कई चुंबन भी जड़ दिए.
दयावती ने मुसकरा कर कहा, ‘‘चल हट, रही न वही बच्ची की बच्ची.’’
‘‘क्या हो रहा है, मां? पहले यह बताओ?’’
मां ने रश्मि को सारा दुखड़ा रो दिया.
‘‘तो इस में क्या बात है? तुम अपने दामाद का दिल बहलाओ. मैं थोड़ी देर में सब ठीक किए देती हूं.’’
‘‘पगली कहीं की,’’ मां ने प्यार से झिड़क कर कहा, ‘‘2 दिन के लिए तो आई है. क्या तुझ से घर का काम करवाऊंगी?’’
‘‘क्यों, क्या अब तुम्हारी बेटी नहीं रही मैं? डांटडांट कर क्या मुझ से घर का काम नहीं करवाया तुम ने? यह घर क्या अब पराया हो गया है मेरे लिए?’’ बेटी ने उलाहना दिया.
‘‘तब बात और थी, अब तुझे ब्याह जो दिया है. अपने घर में तो सबकुछ करती ही है. यहां तो तू बैठ और दो घड़ी हंसबोल कर मां का दिल बहला.’’
‘‘नहीं, मैं कुछ नहीं सुनूंगी. तुम अब यहां से जाओ. या तो इन के पास जा कर बैठो या छुटकी को संभाल लो और भाभी को यहां भेज दो. हम दोनों मिल कर काम निबटा देंगे.’’
‘‘अरे, बहू को क्या भेजूं, उसे तो छुटकी से ही फुरसत नहीं है. यह बच्ची भी ऐसी है कि दूसरे के पास जाते ही रोने लगती है. रोता बच्चा किसे अच्छा लगता है?’’
रश्मि को मां की बात में कुछ गहराई का एहसास हुआ. कहीं कुछ गड़बड़ लगती है, पर उस ने कुरेदना ठीक नहीं समझा. वह भी किसी की बहू है और उसे भी अपनी सास से निबटना पड़ता है. तालमेल बिठाने में कहीं न कहीं किसी को दबना ही पड़ता है. बिना समझौते के कहीं काम चलता है?
बातें करतेकरते रश्मि ने एक प्याला चाय बना ली थी. मां के हाथों में चाय का प्याला देते हुए उस ने कहा, ‘‘तुम जाओ, मां, उन्हें चाय दे आओ. उन को तो दिन भर चाय मिलती रहे, फिर कुछ नहीं चाहिए.’’
मां ने झिझकते हुए कहा, ‘‘अब तू ही दे आ न.’’
‘‘ओहो, कहा न, मां, तुम जाओ और दो घड़ी उन के पास बैठ कर बातें करो. आखिर उन को भी पता लगना चाहिए कि उन की सास यानी कि मेरी मां कितनी अच्छी हैं.’’
रश्मि ने मां को जबरदस्ती रसोई से बाहर निकाल दिया और साड़ी को कमर से कस कर काम में लग गई. फुरती से काम करने की आदत उस की शुरू से ही थी. देखतेदेखते उस ने सारी रसोई साफ कर दी.
फिर भाभी के पास जा कर बच्ची को गोद में ले लिया और हंसते हुए बोली, ‘‘यह तो है ही इतनी प्यारी कि बस, गोद में ले कर इस का मुंह निहारते रहो.’’
भाभी को लगा जैसे ननद ताना दे रही हो, पर उस ने तीखा उत्तर न देना ही ठीक समझा. हंस कर बोली, ‘‘लगता है सब के सिर चढ़ जाएगी.’’
‘‘भाभी, इसे तो मैं ले जाऊंगी.’’
‘‘हांहां, ले जाना. रोतेरोते सब के दिमाग ठिकाने लगा देगी.’’
‘‘बेचारी को बदनाम कर रखा है सब ने. कहां रो रही है मेरे पास?’’
‘‘यह तो नाटक है. लो, लगी न रोने?’’
‘‘लो, बाबा लो,’’ रश्मि ने हंस कर कहा, ‘‘संभालो अपनी बिटिया को. अच्छा, अब यह बताओ नाश्ता क्या बनेगा? मैं जल्दी से तैयार कर देती हूं.’’
भाभी ने जबरन हंसते हुए कहा, ‘‘क्यों, तुम क्यों बनाओगी? क्या दामादजी को किसी दूसरे के हाथ का खाना अच्छा नहीं लगता?’’
हंस कर रश्मि ने कहा, ‘‘यह बात नहीं, मुझे तो खुद ही खाना बनाना अच्छा लगता है. वैसे वह बोल रहे थे कि भाभी के हाथ से बने कबाब जरूर खाऊंगा.’’
‘‘बना दूंगी. अच्छा, तुम इसे जरा गोदी में ले कर बैठ जाओ, सो गई है. मैं झटपट नाश्ता बना देती हूं.’’
‘‘ओहो, लिटा दो न बिस्तर पर.’’
‘‘यही तो मुश्किल है. बस गोदी में ही सोती रहती है.’’
‘‘अच्छा ठहरो, मां को बुलाती हूं. वह ले कर बैठी रहेंगी. हम दोनों घर का काम कर लेंगे.’’
‘‘नहींनहीं, मांजी को तंग मत करो.’’
जया को मालूम था कि एक तो छुटकी मांजी की गोद में ज्यादा देर टिकती नहीं, दूसरे जहां उस ने कपड़े गंदे किए कि वह बहू को आवाज देने लगती हैं. स्वयं गंदे कपड़े नहीं छूतीं.
रश्मि को लगा, यहां भी कुछ गड़बड़ है. चुपचाप धीरे से छुटकी को गोद में ले कर बैठ गई और प्यार से उस का सुंदर मुख निहारने लगी. कुछ ही महीने की तो बात है, उस के घर भी मेहमान आने वाला है. वह भी ऐसे ही व्यस्त हो जाएगी. घर का पूरा काम न कर पाएगी तो उस की सास क्या कर लेगी, पर उस की सास तो सैलानी है, वह तो घर में ही नहीं टिकती. उस का सामाजिक दायरा बहुत बड़ा है. गरदन को झटका दे कर रश्मि मन ही मन बोली, ‘देखा जाएगा.’
मुश्किल से 15 मिनट हुए थे कि बच्ची रो पड़ी. हाथ से टटोल कर देखा तो पोतड़ा गीला था. उस ने जल्दी से कपड़ा बदल दिया, पर बच्ची चुप न हुई. शायद भूखी है. अब तो भाभी को बुलाना ही पड़ेगा. भाभी ने टोस्ट सेंक दिए थे, आमलेट बनाने जा रही थी. पिताजी अभी गरमगरम जलेबियां ले कर आए थे.
भाभी को जबरदस्ती बाहर कर दिया. बच्ची की देखभाल आवश्यक थी. फुरती से आमलेट बना कर ट्रे में रख कर मेज पर पहुंचा दिए. कांटेचम्मच, प्यालेप्लेट सब सही तरह से सजा कर पिताजी और अपने पति को बुला लाई. मां अभी नहा रही थीं. उस ने सोचा वह मां और भाभी के साथ खाएगी बाद में.
नाश्ते के बाद रश्मि ने कुछ काम बता कर पति को बाजार भेज दिया. अब मैदान खाली था. झट से झाड़ ू उठा ली. सोचा कि पति के वापस आने से पहले ही सारा घर साफसुथरा कर देगी. वह नहीं चाहती थी कि पति के ऊपर उस के मायके का बुरा प्रभाव पड़े. घर का मानअपमान उस का मानअपमान था. पति को इस से क्या मतलब कि महरी आई या नहीं.
जैसे ही उस ने झाड़ ू उठाई कि जया आ गई. दोनों में खींचातानी होने लगी.
‘‘ननद रानी, यह क्या कर रही हो? लोग क्या कहेंगे कि 2 दिन के लिए मायके आई और झाड़ ूबुहारु, चौकाबरतन सब करवा लिए. चलो हटो, जा कर नहाधो लो.’’
‘‘नहीं जाती, क्या कर लोगी?’’ रश्मि ने मुसकरा कर कहा, ‘‘मेरा घर है, मैं कुछ भी करूं, तुम्हें मतलब?’’
‘‘है, मतलब है. तुम तो 2 दिन बाद चली जाओगी, पर मुझे तो सारा जीवन यहां बिताना है.’’
रश्मि ने इशारा समझा, फिर भी कहा, ‘‘अच्छा चलो, काम बांट लेते हैं. तुम उधर सफाई कर लो और मैं इधर.’’
‘‘बिलकुल नहीं,’’ जया ने दृढ़ता से कहा, ‘‘ऐसा नहीं होगा.’’
भाभी और ननद झगड़ ही रही थीं कि बच्ची ने रो कर फैसला सुना दिया. भाभी मैदान से हट गई. इधर मां ने दिन के खाने का काम संभाल लिया. छुटकी को नहलानेधुलाने व कपड़े साफ करने में ही बहू को घंटों लग जाते हैं. सास बहू की मजबूरी को समझती थी, पर एक अनकही शिकायत दिल में मसोसती रहती थी. बहू के आने से उसे क्या सुख मिला? वह तो जैसे पहले घरबार में फंसी थी वैसे ही अब भी. कैसेकैसे सपनों का अंबार लगा रखा था, पर वह तो ताश के पत्तों से बने घर की तरह बिखर गया.
वह कसक और बढ़ गई थी. नहीं, शायद कसक तो वही थी, केवल उस की चुभन बढ़ गई थी. दयावती के हाथ सब्जी की ओर बढ़ गए. फिर भी उस का मन बारबार कह रहा था, लड़की को देखो, 2 दिन के लिए आई है, पर घर का काम ऐसे कर रही है जैसे अभी विवाह ही न हुआ हो. आखिर लड़की है. मां को समझती है…और बहू…
संध्या हो चुकी थी. रश्मि और उस का पति विजय अभीअभी जनपथ से लौटे थे. कितना सारा सामान खरीद कर लाए थे. कहकहे लग रहे थे. चाय ठंडी हो गई थी, पर उस का ध्यान किसे था? विजय ने पैराशूटनायलोन की एक जाकेट अपने लिए और एक अपनी पत्नी के लिए खरीदी थी. रश्मि के लिए एक जींस भी खरीदी थी. उसे रश्मि दोनों चीजें पहन कर दिखा रही थी. कितनी चुस्त और सुंदर लग रही थी. दयावती का चेहरा खिल उठा था. दिल गर्व से भर गया था.
बहू रश्मि को देख कर हंस रही थी, पर दिल पर एक बोझ सा था. शादी के बाद सास ने उस की जींस व हाउसकोट बकसे में बंद करवा दिए थे, क्योंकि उन्हें पहन कर वह बहू जैसी नहीं लगती थी.
रात को गैस के तंदूर पर रश्मि ने बढि़या स्वादिष्ठ मुर्गा और नान बनाए. इस बार बहू अपने मायके से तंदूर ले कर आई थी, पर वह वैसा का वैसा ही बंद पड़ा था. उस पर खाना बनाने का अवकाश किसे था. सास को आदत न थी और बहू को समय न था. तंदूर का खाना इतना अच्छा लगा कि विजय ने रश्मि से कहा, ‘‘कल हम भी एक तंदूर खरीद लेंगे.’’
दयावती के मुंह से निकल गया, ‘‘क्यों पैसे खराब करोगे? यही ले जाना. यहां किस काम आ रहा है.’’
कमलनाथ ने कहा, ‘‘ठीक तो है, बेटा. तुम यही ले जाओ. हमें जरूरत पड़ेगी तो और ले लेंगे.’’
बहू चुप. उस के दिल पर तो जैसे किसी ने हथौड़ा मार दिया हो. उस ने अपने पति की ओर देखा. बेटे ने मुंह फेर लिया. एक ही इलाज था. कल ही बहन के लिए एक नया तंदूर खरीद कर ले आए. लेकिन इस के लिए पैसे और समय दोनों की आवश्यकता थी.
बेटी को अपना माहौल याद आया. एक बार तंदूर ले गई तो उस के ससुर व पति दोनों जीवन भर उसे तंदूर पर ही बैठा देंगे. दोनों को खाने का बहुत शौक था. इस के अलावा उसे याद था कि जब मां का दिया हुआ शाल सास ने उस की ननद को बिना पूछे पकड़ा दिया था तो उसे कितना मानसिक कष्ट हुआ था. आंखों में आंसू आ गए थे. भाभी की हालत भी वही होगी.
बात बिगड़ने से पहले ही उस ने कहा, ‘‘नहीं मां, यह तंदूर भाभी का है, मैं नहीं ले जाऊंगी. मेरे पड़ोस में एक मेजर रहते हैं. उन्होंने मुझे सस्ते दामों पर फौजी कैंटीन से तंदूर लाने के लिए कहा है. 2-2 तंदूर ले कर मैं क्या करूंगी?’’
बेटी ने तंदूर के लिए मांग नहीं की थी, परंतु उस ने ससुराल लौटते ही मेजर साहब से तंदूर के लिए कहने का इरादा कर लिया था.
अगले दिन बेटी और दामाद चले गए. घर सूनासूना लगने लगा. चहलपहल मानो समाप्त हो गई थी. इस सूनेपन को तोड़ने वाली केवल एक आवाज थी और वह थी बच्ची के रोने की आवाज. वातावरण सामान्य होने में कुछ समय लगा. मां के मुंह से हर समय बेटी का नाम निकलता था. वह क्याक्या करती थी…क्या कर रही होगी…बच्चा ठीक से हो जाए…तुरंत बुला लूंगी. 3 महीने से पहले वापस नहीं भेजूंगी. बहू सोच रही थी, उसे तो पीछे पड़ कर 1 महीने बाद ही बुला लिया था.
दयावती की बहन की लड़की किसी रिश्तेदार के यहां विवाह में आई थी, समय निकाल कर वह मौसी से मिलने भी आ गई.
‘‘क्या हो रहा है, मौसी?’’
‘‘अरे, तू कब आई?’’ दयावती ने चकित हो कर कहा, ‘‘कुछ खबर भी नहीं?’’
‘‘लो, जब खुद ही चली आई तो खबर क्या भेजनी? आई तो कल ही हूं. शादी है एक. कल वापस भी जाना है, पर अपनी प्यारी मौसी से मिले बिना कैसे जा सकती हूं? भाभी कहां हैं? सुना है, छुटकी बड़ी प्यारी है. बस, उसे देखने भर आई हूं.’’
‘‘अरे, बैठ तो सही. सब देखसुन लेना. देख कढ़ी बना रही हूं. खा कर जाना.’’
‘‘ओहो…बस, मौसी, तुम और तुम्हारी कढ़ी. हमेशा चूल्हाचौका. अब भाभी भी तो है, कुछ तो आराम से बैठा करो.’’
दयावती ने गहरी सांस ले कर कहा, ‘‘क्या आराम करना. काम तो जिंदगी की अंतिम सांस तक करना ही करना है.’’
‘‘हाय, दीदी, तुम्हारा कितना काम करती थी. सच, तुम्हें रश्मि दीदी की बहुत याद आती होगी, मौसी?’’
‘‘अब फर्क तो होता ही है बहू और बेटी में,’’ दयावती ने फिर गहरी सांस ली.
जया सुन रही थी. उस के दिल पर चोट लगी. क्यों फर्क होता है बहू और बेटी में? एक को तीर तो दूसरे को तमगा. जब सास की बहन की लड़की चली गई तो जया सोचने लगी कि इस स्थिति में बदलाव आना जरूरी है. सास और बहू के बीच औपचारिकता क्यों? वह सास से साफसाफ कह सकती है कि बारबार बेटी की रट न लगाएं. पर ऐसा कहने से सास को अच्छा न लगेगा. अब उसे ही बेटी की भूमिका अदा करनी पड़ेगी. न सास रहेगी, न बहू. हर घर में बस, मांबेटी ही होनी चाहिए.
वह मुसकराई. उसे एक तरकीब सूझी. परिणाम बुरा भी हो सकता था, परंतु उस ने खतरा उठाने का निर्णय ले ही लिया. अगले सप्ताह होली का त्योहार था. अगर कुछ बुरा भी लगा तो होली के माहौल में ढक जाएगा. उस ने छुटकी को उठा कर चूम लिया.
प्रात: जब वह कमरे से निकली तो जींस पहने हुए थी और ऊपर से चैक का कुरता डाल रखा था. हाथ में गुलाल था.
‘‘होली मुबारक हो, मांजी,’’ कहते हुए जया ने ननद की नकल करते हुए सास के गालों पर चुंबन जड़ दिए और मुंह पर गुलाल मल दिया. दयावती की तो जैसे बोलती ही बंद हो गई. इस से पहले कि सास संभलती, जया ने खिलखिला कर ‘होली है…होली है’ कहते हुए सास को पकड़ कर नाचना शुरू कर दिया. होहल्ला सुन कर कमलनाथ भी बाहर आ गए और यह दृश्य देख कर हंसे बिना न रह सके.
‘‘यह क्या हो रहा है, बहू?’’ कमलनाथ ने हंसते हुए कहा.
‘‘होली है, पिताजी, और सुनिए, आज से मैं बहू नहीं हूं, बेटी हूं…सौ फीसदी बेटी,’’ यह कहते हुए उस ने ससुर के मुंह पर भी गुलाल पोत दिया.
इस से पहले कि कुछ और हंगामा खड़ा होता, पासपड़ोस के लोग मिलने आने लगे. स्त्रियां तो घर में ही घुस आईं. इसी बीच छुटकी रोने लगी. जया ने दौड़ कर छुटकी को उठा लिया और उस के कपड़े बदल कर सास की गोदी में बैठा दिया.
‘‘मांजी, आप मिलने वालों से निबटिए, मैं चायनाश्ता लगा रही हूं.’’
‘‘पर, बहू…’’
‘‘बहू नहीं, बेटी, मांजी. अब मैं बेटी हूं. देखिए मैं कितनी फुरती से काम निबटाती हूं.’’
लोग आ रहे थे और जा रहे थे. जया फुरती से नाश्ता लगालगा कर दे रही थी. रसोई का काम भी संभाल रही थी. गरमागरम पकौडि़यां बना रही थी, जूठे बरतन इकट्ठा नहीं होने दे रही थी. साथ ही साथ धो कर रखती जाती थी. सास को 2 बार रसोई से बाहर किया. उस का काम केवल छुटकी को रखना और मिलने वालों से बात करना था. सास को मजबूरन 2 बार छुटकी के कपड़े बदलने पड़े. सब से बड़ी बात तो यह थी कि दादी की गोद में छुटकी आज चुप थी, रोने का नाम नहीं. लगता था कि वह भी षडयंत्र में शामिल थी.
जब मेहमानों से छुट्टी मिली तो दयावती ने महसूस किया कि छुटकी कुछ बदल गई है. रोई क्यों नहीं आज? बल्कि शैतान हंस ही रही थी.
कमलनाथ ने आवाज दी, ‘‘बहू, जरा एक दहीबड़ा और दे जाना, बहुत अच्छे बने हैं.’’
रसोई से आवाज आई, ‘‘यहां कोई बहूवहू नहीं है, पिताजी.’’
‘‘बड़ी भूल हो गई बेटी,’’ कमलनाथ ने हंसते हुए कहा, ‘‘अब तो मिलेगा न?’’
‘‘और हां बेटी,’’ सास ने शरमाते हुए कहा, ‘‘अपनी मां का भी ध्यान रखना.’’
सास के गले में बांहें डालते हुए जया ने कहा, ‘‘क्यो नहीं, मां, आप लोगों को पा कर मैं कितनी धन्य हूं.’’
रमेश ने जो यह नाटक देख रहा था, गंभीरता से कहा, ‘‘इन हालात में मेरी क्या स्थिति है?’’ और सब हंस पड़े.

सपनो की उड़ान

सपनो की उड़ान
धरती से ही भरनी होगी,
ये मेहनत आज नही तो कल
करनी ही होगी।

रातो को सवेरा,और सवेरे को रात
बनाना ही होगा
जहा पहुचने का सोच रहे हो तुम
उसका रास्ता खुद तुम्हे बनाना ही होगा।

सपनो की उड़ान
धरती से ही भरनी होगी ।

Tuesday, October 1, 2019

मेट्रो

“शुभी, थोड़ा जल्दी कर, नौ बजेवाली मेट्रो ट्रेन मिस हो गई, तो मुश्किल हो जाएगी.”
“बस निश्का, दो मिनट रुक जा. आज देर से क्या उठे सब अस्त-व्यस्त हो गया. अब से तुझे अलार्म सेट करने नहीं दूंगी. सुबह की जगह शाम को बजता है. पी.जी. वाली आंटी चाय के लिए जगाती नहीं, तो पता नहीं क्या होता, तब मिस्टर देसाई के फोन से उठते हम.”
“अब तू ब़ड़बड़ाना बंद कर और सुबह-सुबह बॉस का नाम लेने की ज़रूरत नहीं है. पूरा दिन ख़राब निकलेगा. ताला ढूंढ़ कहां रखा है, जो जहां है उसे वहीं छोड़ दे.” टेबल के नीचे झांकते हुए निश्का बोल रही थी कि कुर्सी पर पड़ा हुआ ताला उसे दिख गया. कुछ ही देर में भागते-दौड़ते ऑटो को रोकने की कवायद शुरू हो गई थी. ऑटोवाले भी चेहरे की बेचैनी से भांप लेते हैं कि सामनेवाला कितना ज़रूरतमंद है. निश्का ऑटोवाले से उलझी ही थी कि शुभी ने कह दिया, “छोड़ यार! अब चल इसी से. आज तो ये लूटेंगे ही.” भुनभुनाते हुए वो दोनों ऑटो में जा बैठी थीं. बेचैनी से घड़ी देखते वे मेट्रो स्टेशन तक पहुंचीं. गेट पर पहुंचकर शुभी ने पर्स में हाथ डाला, तो याद आया एंट्री कार्ड तो घर पर दूसरे पर्स में रह गया.
“इसे कहते हैं कंगाली में आटा गीला.” निश्का बड़बड़ाने लगी. टिकट ख़रीदने के लिए दोनों भागीं. प्लेटफॉर्म पर खड़ी उनकी मेट्रो सामने से मुंह चिढ़ाती हुई गुज़र गई. शुभी लगभग रुआंसी थी. निश्का ने तसल्ली दी, “अगली मेट्रो का इंतज़ार करते हैं. दरबार स्कायर से ऑटो ले लेंगे.” दूसरी मेट्रो भी आ गई थी, पर रास्ता टेढ़ा था पहुंचने का, अंदर भीड़ में भी लग रहा था कि वे अकेली खड़ी हैं और आज का दिन स़िर्फ उन्हें छकाने आया था. कुछ देर वो दोनों यूं ही खड़ी रहीं मानो आज की जंग के लिए ख़ुद को तैयार कर रही हों, तभी स्टेशन आने की एनाउसमेंट की ओर ध्यान गया. भीड़ छंट गई थी. निश्का ने शुभी को देखा मेट्रो के छूटने का अफ़सोस अभी भी उसके चेहरे पर दिखाई दे रहा था. निश्का ने उसे तसल्ली देते हुए कहा, “अब छोड़ न, होता है ऐसा कभी-कभी.”
“कल ही बॉस ने मीटिंग ली थी कि वो लेट आने को बहुत सीरियसली लेंगे और आज ही हम लेट हो गए. खड़ूस बॉस तो हमारी जान ही ले लेंगे.” सामने बैठे एक लड़के ने उनकी ओर ध्यान से देखा, फिर हाथ में पकड़ी क़िताब को पढ़ने की कोशिश करने लगा.
“कोई बात नहीं, हम कान में रुई डालकर जाएंगे उनके पास…” निश्का ने शुभी को हंसाने का प्रयास किया, पर उसके होंठों पर मुस्कान की एक रेखा तक न आई.
“तू बॉस को फोन करके बोल न, आज हमारी मेट्रो छूट गई है, हम देर से आएंगे.” जवाब में निश्का ने अपना फोन शुभी की ओर बढ़ाया, तो उसने झुंझलाकर कहा, “फोन तो मेरे पास भी है. तू कर न बॉस को फोन यानी बिल्ली के गले में घंटी भी मैं ही बांधू.” निश्का शुभी को बोलते हुए नंबर मिलाने लगी.
“हैलो मिस्टर देसाई. दरअसल आज हमारी मेट्रो छूट गई. सर, आज देर हो जाएगी.” निश्का ने जल्दी से मुद्दे की बात कही. “थोड़ी क्या ज़्यादा देर से आइए आप लोग… भई चाहे तो न भी आएं. ऑफिस तो आपकी जागीर है.”
“नहीं मिस्टर देसाई, ऐसा नहीं है, हम सच में आज प्रॉब्लम में हैं.”
“आप लोगों के ऐसे बहानों से मैं भी प्रॉब्लम में आ जाता हूं.” अंतिम वाक्य तेज़धारी तलवार जैसे थे.
“बड़ा खड़ूस आदमी है ये देसाई… ऐसा बॉस भगवान किसी को न दे.” निश्का के मुंह से वाक्य इतनी ज़ोर से निकले थे कि आस-पास के लोग उनकी तरफ़ देखने लगे. उस लड़के ने एक बार फिर सिर क़िताब से उठाया और हंसकर बोला, “बॉस सभी के ऐसे ही खड़ूस होते हैं.” उसकी बात पर निश्का और शुभी पहले तो चौंकीं, फिर खिसियाकर मुस्कुरा दीं. उस मुस्कुराहट के पीछे अपनी शर्मिंदगी छिपाने की कोशिश थी. वो लड़का बोल रहा था, “मेरी मानिए, तो आज अपना ऑफिस जाने का प्रोग्राम छोड़कर शहर में लगे फूड फेस्टिवल चलिए.” इससे पहले कि निश्का और शुभी उसे यूं दख़लअंदाज़ी के लिए टोकतीं, उसने अपना परिचय एक शेफ के रूप में दिया. उसके आत्मविश्वास के साथ बात करने का तरीक़ा इतना प्रभावी था कि आस-पास के लोग भी ध्यानपूर्वक उसकी बात सुनने लगे. कुछ तो वहां पहुंचने का मन भी बनाने लगे, तो कुछ कहने लगे कि इस फूड फेस्टिवल ने बड़ी लोकप्रियता अर्जित की है. कुछ अख़बारों में भी इसके बारे में छपा था.
शुभी और निश्का बेचारगी से सुन रही थीं. रोज़ ऑफिस और घर आकर दूसरे दिन की तैयारी करना. कितने ही दिन हो गए वे दोनों कहीं बाहर घूमने-फिरने नहीं गए. अपने छोटे-से रूम और ऑफिस के अलावा बाहर की दुनिया की सुध लिए अरसा बीत गया था.
उन दोनों के चेहरों को ध्यान से देखते हुए वो लड़का फिर बोला, “आज आपकी मेट्रो इसीलिए छूटी है, ताकि आप मेरे स्टॉल पर चलकर फूड एंजॉय करें.” शुभी को उसकी बातों में बड़ा मज़ा आया. उन दोनों ने एक-दूसरे की ओर देखा. उस लड़के की बातों का असर था या उम्र का, वे दोनों फूड फेस्टिवल में चलने को तैयार हो गईं.
उतरते व़क्त शुभी ने कहा, “कोई हमारी बेव़कूफ़ी सुनेगा, तो हंसेगा. अभी भी सोच ले निश्का. हमारा खड़ूस बॉस…” शुभी ने चेताया.
“अरे छोड़ न, डांट तो पड़ने ही वाली है, थो़ड़ा ज़्यादा खा लेंगे.”
“अब आप ज़्यादा सोच-विचार में न पड़ें और अब मैं भी अजनबी नहीं हूं. इतने सारे लोगों के सामने अपने साथ चलने को कहा है, तो मुझसे कोई ख़तरा भी नहीं है.”
“अरे नहीं, वो बात नहीं, पर ख़ुद पर हंसी आ रही है. स्कूल की याद आ गई जब क्लास बंक करके हम…”
“ओह! तो ये आप लोगों की पुरानी आदत है. तभी तो कहूं कि आप लोग इतनी जल्दी कैसे तैयार हो गईं.”
“प्लीज़, अब आप हमारे बॉस की तरह बात मत करिए.” शुभी ने कहा, तो वो हंस दिया. रास्ते में आर्यमन ने अपना परिचय दिया और बताने लगा कि उसने फूड फेस्टिवल में कुछ ऐसी इंडियन डिशेज़ को इंट्रोड्यूस किया है, जिनका स्वाद लोग भूल चुके थे. “पारंपरिक व्यंजन को घर-घर, गांव-गांव जाकर मैंने निकाला है और एक नए रूप में प्रेज़ेंट किया है. आप लोग ज़रूर खाइएगा. पता नहीं कौन-सा भूला-बिसरा स्वाद आपको यहां मिल जाए.”
उसकी बातों की तरह उसके स्टॉल में भी जादू भरा था, तभी वहां कितनी भीड़ थी. चायनीज़ कॉन्टिनेंटल पर वो स्टॉल भारी पड़ा था. इतनी भीड़ देखकर हैरान थीं वे दोनों. वो अपने स्टॉल पर रुक गया और निश्का व शुभी जी भरकर खाने के बाद छुट-पुट शॉपिंग में जुट गई थीं. बिना मतलब के इधर-उधर घूमकर मस्ती करना उन दोनों के जीवन में एक नया ज़ायका भर गया था. अब उन दोनों ने मूवी का प्लान भी बना लिया था. घास पर बैठे कॉफी पीते हुए निश्का ने कहा, “चलते समय आर्यमन के स्टॉल होते हुए जाएंगे. आज के दिन के लिए उसे थैंक्स कहना बनता है.” “वो तो ठीक है निश्का, पर ध्यान से, थोड़ा चिपकू क़िस्म का है. लेकिन जो भी है, आज यहां आने का पूरा श्रेय आर्यमन को जाता है.” शुभी उठते हुए बोली.
आर्यमन अपने स्टॉल में बैठा एक गुजराती दंपति से ज़ायके के बारे में उनकी राय ले रहा था. शुभी और निश्का को आते देख, वो काउंटर की ओर आ गया. हल्की-सी मुस्कान के साथ पूछा, “कैसा रहा आज का दिन?” तो निश्का बोल पड़ी, “उसी के लिए हम आपको थैंक्स कहने आए हैं. हमारी मेट्रो का छूटना, आपसे मिलना और फिर ऑफिस छोड़कर यहां आना सब कितना फिल्मी लग रहा है.”
आर्यमन अचानक संजीदा होकर कहने लगा, “रोज़ की भागदौड़ से ऐसे पल चुरा लेने से ज़िंदगी को थोड़ा ऑक्सिजन मिल जाता है.” कहते हुए वह भीतर गया और वापस आया, तो हाथ में एक डिब्बा था. निश्का को देते हुए बोला, “दोस्तों को कई बार दिया है, आज पहली बार किसी अजनबी को गिफ्ट दे रहा हूं.”
“यह मेरे लिए है या शुभी के लिए.” निश्का ने शरारत से पूछा, तो शुभी ने अपनी कोहनी चुभाकर निश्का को सतर्क किया. तब तक आर्यमन ने बोल दिया, “आप दोनों के लिए है.” रास्ते में शुभी निश्का को बड़बड़ा रही थी. “मना कर देना था. ज़रा-सी हमने लिफ्ट क्या दी, वो गिफ्ट पर उतर आया.” “अरे, अब इतना रिएक्ट मत कर. कुछ दिया ही है न… मांगा तो नहीं.. कुछ लोग बहुत भावुक होते हैं, जल्दी रिश्ते जोड़ लेते हैं.”
मूवी देखकर घर की ओर आते ऐसा लगा मानो आज एक हसीन ख़्वाब देखा हो. ख़ुद के हिस्से में आए आज के दिन के लिए वे दोनों मेट्रो की शुक्रगुज़ार थीं. शुभी हंसकर बोली, “अब आज के बाद मेट्रो छूटने न पाए, वरना वो आर्यमन हमारी नौकरी छुड़वा देगा.”
“शुभ-शुभ बोल, कहीं ऐसा न हो तेरी बात सच ही हो जाए.” निश्का ने टोकते हुए कहा. रात को अचानक उस डिब्बे की याद आई. “निश्का, इसे खोलकर देखो, क्या है इसमें.” “ओफ्फो! पहले तो मैडम नाराज़ थीं. अब ख़ुद उतावली हो रही हैं.” निश्का ने चिढ़ाया. तब तक डिब्बा खुल चुका था. हैरान हुईं, जब दो खाखरे के पैकेट रखे देखे, साथ में एक चिट, जिसमें लिखा था, ‘ये खाखरे अपने बॉस को खिला दीजिएगा, हो सकता है कि आज की गुस्ताख़ी के लिए माफ़ी मिल जाए.’ “छोड़ो, आर्यमन के इस मज़ाक का क्या करना है. आज का दिन अच्छा बीता, बस काफ़ी है. इसे हम ऑफिस में खाएंगे.” दूसरे दिन मेट्रो समय पर पहुंच गई थी, तब चपरासी ने कहा, “बॉस ने बुलाया है. मिज़ाज कुछ बिगड़ा है उनका.” “सही कब रहता है.” निश्का ने कहा, तो शुभी ने उसे आंख दिखाई. बॉस के कमरे में क़दम रखा, तो एसी की ठंडक ने सिहरा दिया. “सर, मे आई कम इन.”
“अरे भई! आप लोगों ने तो मेरी बात को बड़ा सीरियसली ले लिया. मैंने तो यूं ही कहा था, पर आप लोग तो सच में ऑफिस नहीं आईं.” मिस्टर देसाई अपने चिर-परिचित अंदाज़ में व्यंग्यात्मक लहज़े में बात कर रहे थे.
था़ेडा सोचकर निश्का ने बात को संभालते हुए कहा, “सर, कल शुभी की तबीयत रास्ते में कुछ ख़राब हो गई थी..”
“तो आप इसे डॉक्टर के पास ले गईं.”
मिस्टर देसाई ने निश्का की बात पूरी की, तो वो हकबका गई.
“अरे कम से कम बहाना तो ढंग का बनाना सीख लीजिए. वही घिसा-पिटा मेट्रो छूट गई. अब आप लोग अपना इस्तीफ़ा मेज़ पर रखिए और शाम तक पेंडिग काम निपटाइए.” निश्का ने आवेश में कहा, “सर, इतनी-सी बात के लिए इस्तीफ़ा…?”
मिस्टर देसाई बोले, “इस्तीफ़ा नहीं तो खाखरे ही दे दो. क्या मेरा हिस्सा भी खाने का इरादा है?” उन दोनों का तो सिर चकरा गया और मिस्टर देसाई ठहाके मार के हंस रहे थे. किसी तरह हंसी रोककर बोले, “भई, कल मेट्रो छूटने के बाद फूड फेस्टिवल में आर्यमन ने जो खाखरे का डिब्बा दिया था, वही मांग रहा हूं. खाखरे कमज़ोरी हैं मेरी.” बुत बनी शुभी और निश्का से बोले, “लाई हो या घर भूल आई?”
“लाई हूं सर.”
“तो जाओ, लेकर आओ…”
निश्का उल्टे पांव लौट गई और उतनी ही तेज़ी से वापस आई. पसीने से तरबतर निश्का के हाथ से डिब्बा लेते ही मिस्टर देसाई ने पानी का ग्लास पकड़ाया, तभी फोन घनघना उठा. फोन पर मिस्टर देसाई बोल रहे थे, “हां भई, तुम्हारा भेजा डिब्बा मिल गया है, पर ज़रा समय निकालकर घर पर दर्शन दे जाओ. तुम्हारी मां भी खाना अच्छा बनाती है. कहीं वहीं से जयपुर जाने का इरादा तो नहीं है. इतनी भी क्या व्यस्तता… हां, वो दोनों यहीं हैं, बेचारी चक्कर में हैं… ऐ लो भई बात करो.” निश्का ने रिसीवर कान में लगाया, तो आर्यमन की ज़ोरदार हंसी सुनाई दी, “सॉरी निश्का, दरअसल आपके बॉस मेरे पापा हैं. कल आप दोनों के हाथ में देसाई ग्रुप का बैग देखकर सोच ही रहा था कि पूछूं, पर फोन की बातचीत ने मेरे शरारती दिमाग़ को कुछ और करने पर मजबूर कर दिया.” शुभी अब अंदाज़ा लगा चुकी थी. वो निश्का से फोन लेते हुए बोली, “आर्यमनजी आपने हमारे बारे में बॉस को…”
“खड़ूस बॉसवाली बात नहीं बताई है.” आर्यमन ने शुभी की बात बीच में ही काटकर बोला, तो शुभी ने जल्दी से रिसीवर पर हाथ रख दिया. “एक बात तो सीख ली हमने कि मोबाइल पर अक्सर बिना आस-पास की चिंता किए जो बोल जाते हैं, वो कोई गुल भी खिला सकता है.”
“मुझे उम्मीद है कि इस क़िस्से को आप लोग ताउम्र याद रखेंगी.” शुभी हंस पड़ी थी. निश्का बॉस को सफ़ाई दे रही थी, “अरे, कल हमारी मेट्रो छूटी, तो हमने दूसरा रास्ता निकाल लिया था कि कैसे ऑफिस पहुंचना है. हमने फोन भी किया था, पर आप नाराज़ थे. आपको लगा हम बहाना बना रहे हैं तो…”
“आपने शुभी को सच में बीमार कर दिया.” निश्का और शुभी ने शर्मिंदा होते हुए अपनी नज़रें नीची कर लीं. फिर ख़ुद पर हंस पड़ीं. मिस्टर देसाई बोल रहे थे, “मेरा कारोबार, ये बड़ा-सा ऑफिस सब कुछ मैंने अपनी मेहनत के बलबूते पर बनाया है. अक्सर लोग बहाना बनाते हैं और मैं भी लोगों के ज़रूरी कारणों को बहाने समझकर उनके साथ ज़्यादती कर देता हूं, पर अनुशासन के लिए ऐसा करना पड़ता है. बस, अपने बेटे आर्यमन को अनुशासन में नहीं रख पाया. मेरी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ वह इस कारोबार को छोड़कर होटल इंडस्ट्री से जा जुड़ा है. मनमौजी है, पर काम के प्रति सजग और वफ़ादार…”
“सर, उन्होंने कैसे बताया हमारे बारे में?”
“अरे, बड़े डांटनेवाले अंदाज़ में बोला था कि आप अपने कर्मचारियों के प्रति ज़रा भी संवेदनशील नहीं हो. इतना क्यों सख़्त व्यवहार करते हो कि… ख़ैर छोड़ो… तुम दोनों के चेहरों की ताज़गी बता रही है कि तुम्हारा कल का दिन बहुत अच्छा गया. एक टॉनिक-सा काम कर गया.”
“सच सर, कल जैसा दिन बहुत दिनों के बाद आया था. और आज का दिन वो भी सर…” निश्का मिस्टर देसाई की बात का जवाब देते हुए मुस्कुरा पड़ी. तभी शुभी ने चहकते हुए कहा, “सर, कल का पेंडिग काम हम आज पूरा कर लेंगे. ज़रूरत होगी, तो ओवर टाइम भी कर लेंगे.”
“कोई ज़रूरत नहीं है ओवर टाइम की. ऑफिस से समय पर घर जाना, वरना कल भी मेट्रो छूट जाएगी.” मिस्टर देसाई की बात पर वे दोनों ज़ोर से हंस पड़ीं. बॉस के कमरे से निकलते हुए शुभी और निश्का की नज़रें मिलीं, तो कहने लगीं, “बॉस इतने भी खड़ूस नहीं होते हैं, कम से कम मिस्टर देसाई तो बिल्कुल नहीं…”

हम और हमारे कर्म

एक व्यक्ति था उसके तीन मित्र थे। एक मित्र ऐसा था जो सदैव साथ देता था। एक पल, एक क्षण भी बिछुड़ता नहीं था। दूसरा मित्र ऐसा था जो सुबह शाम मिलता। और तीसरा मित्र ऐसा था जो बहुत दिनों में जब तब मिलता।
एक दिन कुछ ऐसा हुआ की उस व्यक्ति को अदालत में जाना था किसी कार्यवश और किसी को गवाह बनाकर साथ ले जाना था।
अब वह व्यक्ति अपने सब से पहले अपने उस मित्र के पास गया जो सदैव उसका साथ देता था और बोला :- "मित्र क्या तुम मेरे साथ अदालत में गवाह बनकर चल सकते हो ?
वह मित्र बोला :- माफ़ करो दोस्त, मुझे तो आज फुर्सत ही नहीं।
उस व्यक्ति ने सोचा कि यह मित्र मेरा हमेशा साथ देता था। आज मुसीबत के समय पर इसने मुझे इंकार कर दिया।
अब दूसरे मित्र की मुझे क्या आशा है। फिर भी हिम्मत रखकर दूसरे मित्र के पास गया जो सुबह शाम मिलता था, और अपनी समस्या सुनाई।
दूसरे मित्र ने कहा कि :- मेरी एक शर्त है कि में सिर्फ अदालत के दरवाजे तक जाऊँगा, अन्दर तक नहीं। वह बोला कि :- बाहर के लिये तो मै ही बहुत हूँ मुझे तो अन्दर के लिये गवाह चाहिए।
फिर वह थक हारकर अपने तीसरे मित्र के पास गया जो बहुत दिनों में मिलता था, और अपनी समस्या सुनाई।
तीसरा मित्र उसकी समस्या सुनकर तुरन्त उसके साथ चल दिया। अब आप सोच रहे होँगे कि वो तीन मित्र कौन है...?
तो चलिये हम आपको बताते है इस कथा का सार।
जैसे हमने तीन मित्रों की बात सुनी वैसे हर व्यक्ति के तीन मित्र होते है।
सब से पहला मित्र है हमारा अपना 'शरीर' हम जहा भी जायेंगे, शरीर रुपी पहला मित्र हमारे साथ चलता है। एक पल, एक क्षण भी हमसे दूर नहीं होता।
दसरा मित्र है शरीर के 'सम्बन्धी' जैसे :- माता - पिता, भाई - बहन, मामा -चाचा इत्यादि जिनके साथ रहते हैं, जो सुबह - दोपहर शाम मिलते है।
और तीसरा मित्र है :- हमारे 'कर्म' जो सदा ही साथ जाते है।
अब आप सोचिये कि आत्मा जब शरीर छोड़ कर धर्मराज की अदालत में जाती है, उस समय शरीर रूपी पहला मित्र एक कदम भी आगे चल कर साथ नहीं देता। जैसे कि उस पहले मित्र ने साथ नहीं दिया।
दूसरा मित्र - सम्बन्धी श्मशान घाट तक यानी अदालत के दरवाजे तक राम नाम सत्य है कहते हुए जाते है। तथा वहाँ से फिर वापिस लौट जाते है।
और तीसरा मित्र आपके कर्म है। कर्म जो सदा ही साथ जाते है चाहे अच्छे हो या बुरे। अगर हमारे कर्म सदा हमारे साथ चलते है तो हमको अपने कर्म पर ध्यान देना होगा अगर हम अच्छे कर्म करेंगे तो किसी भी अदालत में जाने की जरुरत नहीं होगी। और धर्मराज भी हमारे लिए स्वर्ग का दरवाजा खोल देंगे।

असली पूजा

ये  लड़की  कितनी नास्तिक  है ...हर  रोज  मंदिर के  सामने  से  गुजरेगी  मगर अंदर  आकर  आरती  में शामिल  होना  तो  दूर, भगवान  की  मूर्ति ...